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PVR Cinemas Udaipur- दर्शकों की जेब पर डाका !!

PVR Udaipur

उदयपुर पी.वी आर. सिनेमा सीधे सीधे स्थानीय लोगों को मूर्ख बनाने का काम कर रहा है. पी.वी.आर. सिनेमा की ओर से वर्तमान में चल रही फिल्मो की सूची के साथ समाचार पत्रों में विज्ञापन द्वारा यह बताया जा रहा है कि दोपहर दो बजे तक “हैप्पी आवर्स” के दौरान टिकटों पर सोमवार से गुरुवार तक  “डिस्काउंट” दिया जा रहा है. यह लगभग पचास प्रतिशत तक है. किन्तु जब टिकट काउंटर पर जायें तो टका सा जवाब मिलता है, “जी, यह सिर्फ पुरानी रिलीज फिल्मो पर लागू है, इसी हफ्ते रिलीज़ हुई फिल्मो पर नहीं.”  जबकि फिलहाल पीवीआर में सिर्फ दो फिल्में अग्निपथ (कुल पंद्रह शो) तथा अंडरवर्ल्ड ( दो शो) ही प्रदर्शित की जा रही है. ज्यादा बात की जाये तो कहते है, आप वहां जाकर अपनी शिकायत दर्ज करवा सकते हैं.

कल “अलर्ट रीडर्स” की तरफ से शिकायत आने पर यूबी सदस्य ने जाकर पड़ताल की तो मामला सही निकला. वहां ” अग्निपथ” फिल्म की टिकट दोपहर बारह बजे बाद रियायती दर पर उपलब्ध नहीं थी. जबकि स्थानीय समाचारपत्रों में अपने विज्ञापन में बिना ” * कंडीशन अप्लाई” के सीधे तौर पर लिखा हुआ है कि सोमवार से गुरुवार दोपहर दो बजे तक रियायती टिकट ही जारी किये जायेंगे. पी.वी.आर के अधिकारियों से जब इसका कारण जानना चाहा तो बताया गया कि ये निर्णय दिल्ली में बैठे आला अधिकारी लेते हैं. जब छपे हुए प्रपत्र में शिकायत दर्ज कर बॉक्स में डालना चाहा तो पाया कि बॉक्स पूरी तरह भरा हुआ था. प्रबंधन की तरफ से उसे खाली करने का कोई इंतज़ाम नहीं पाया गया.

उल्लेखनीय है कि जब पीवीआर ने झीलों के शहर में अपनी स्क्रीन्स ओपन की तो शहरवासियों ने उसका दिल खोलकर स्वागत किया. किन्तु इस प्रकार की शिकायतें कंपनी की छवि को नुक्सान पंहुचा रही है. कंपनी “विज्ञापन में कुछ और तथा सामने कुछ और..” जैसी राह पर निकल चुकी है, जो घातक है. अब जो कालेज स्टुडेंट और मध्यमवर्गी लोग फिल्म देखने आ रहे है, उन्हें महंगी सामान्य दरों पर टिकट खरीदना पड़ रहा है. क्योंकि इतना दूर सेलिब्रेशन माल में जाकर पुनः आना भी एक तरह से जेब के लिए लाभकारी नहीं है.
इस बारे में व्यूअर्स के कमेंट्स सादर आमंत्रित है.

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लो वसंत फिर आ गया..!

दुनिया भर की टेंशन, फेसबुक-ट्विटर पर खुद को खोजते, इतनी सारी व्यस्तताओं और उलझनों के बीच हमारे मन का कोई हिस्सा अपने “होने” के एहसास को बचाने की भरसक कोशिश करता है और हमें बार बार ये एहसास कराता है कि हमारे अन्दर कुछ “अनूठा” अभी भी जिंदा है…मरा नहीं है.. हम अभी भी इतने “मेकेनिकल” नहीं हुए है, जितना हम अपने आप को मान लेते है.. और इन्ही तमाम उलझनों और टेंशनो के बीच हमारे मन ने आज खेतो में उगी पीली फसल
और उदयपुर की सड़कों पर आँखों में घुस रहे छोटे छोटे कीड़े “मोयला” (जिनसे सब डरते है) ने हमें जाता ही दिया है कि लो ऋतुराज बसंत आ ही गया. यूँ भी देखा जाये तो ये ऋतुएं किसी कलेंडर की मोहताज तो होती नहीं… हमारा मन ही इन्हें समझ जाता है… सर्दी किसी बुझती लौ की तरह अपनी तमाम ताकत का एहसास करवा रही है..तो समझ लो वसंत आ रहा है. वैसे एक बात तो है.. सर्दी-गर्मी-वर्षा..ये ऋतुएं हमारा तन समझता है… पर वसंत की अनुभूति हमारे मन तक होती है. आज वसंत पंचमी के दिन हमारे उत्तर भारतीय भाई तो पूरे पीले-केसरिया वस्त्र पहने अलग  ही आभा दे रहे होंगे. वीणा- सितार में राग बसंत गूंज रही होंगी.. सितार की बात आई तो बताते चले..हमारे बंगाली भाई आज माँ सरस्वती की पूजा करते हैं. माँ सरस्वती की कृपा हमें कुछ करने का जज्बा जगाती है. पर आज ज्यादा धार्मिक बातें करने का मन नहीं है सो माँ सरस्वती को यहीं प्रणाम.

Vasant Panchmi | UdaipurBlog

उदयपुर ब्लॉग के कर्ता-धर्ता..सभी परीक्षाओं में व्यस्त है .(माँ सरस्वती की सबसे ज्यादा याद तो इन्हें आ रही होंगी आज.. दो अगरबत्ती ज्यादा जलाने वाले
है..) दिल दिमाग फुर्सत पाना चाहता है. कड़ाके की ठण्ड से थोड़ी निजात मिली है. खिड़की से अन्दर आने वाली धूप अब थोड़ी थोड़ी चुभने लगी है. वसंत, तुम्हारे आते ही मौसम कसमसाने लगा है. सर्दी का मन तो नहीं है जाने का..बार बार लौट लौट कर अपने होने का एहसास करवा रही है.. प्रकृति ने चारो तरफ
पीला-केसरिया रंग उढेल दिया है.. गुनगुनी सर्दी दिल को कुछ ज्यादा ही बैचेन किये दे रही है. मन कह रहा है कि बस कुछ चमत्कार हो जाये और “वो” मेरे पास
हो.. दिल के करीब रहने वाले गीत लबों पर आने को बेताब है. मन अपनी चंचलपना पूरी शिद्दत से दिखा रहा है. मौन हैं..चकित है.. कि इस वसंत का एहसान माने, शुक्रिया अदा करें इसका..कि डांट लगायें.. वसंत का आगमन..बहार को देखकर मन उड़ चला है ..फिर से !

घर-घर चर्चा हो रही फूलों में इस बार लेकर वसंत आ रहा खुशियों का त्योहार बहरहाल मन की इन्ही अनसुलझी परतों के बीच ऋतुराज वसंत महाराज तो आ ही गए है. और ये जब जब आते है तो हमें किसी और ही पुरानी दुनिया में ले जाते है. किताबों का बोझ आज भी उतना ही है. बस जब छोटे थे तो “विद्या” पौधे की पत्ती ज़रूर किताबों में छुपा दिया करते थे. पीली सरसों अब उतनी दिखाई नहीं देती. टेरेस पर लगे पौधे पर ज़रूर गुलाब उग आया है. बड़ा सा… पर उसकी पत्तियों को किताब में सहेजना अब उतना अच्छा नहीं लगता. हवा की हलकी खनक आज भी महसूस होती है. शाम को फतहसागर फिर से जवां लगने लगा है. कुल्हड़ की कॉफी रंग जमा रही है. मौसम अलग सा मिज़ाज जता रहा है. मदहोशी फिर से छाने लगी है. वसंत आज हमें फिर से उकसा रहा है, उन पुराने दिनों को फिर से जीने को. आज जब हम अपने आप ही नाराज़ होने लगे है.. उदास ज्यादा और खुश कम होते है..पहले की मदहोशी और आज की मदहोशी के
मिज़ाज, सुर और परिभाषाएं, सब बदल गए है. तो आज के दिन कुछ अलग ढंग से वसंत के साथ कुछ अलग हटकर करते है.. पुराने दिनों को ताज़ा करते हुए  अलग ढंग से जीते है. आज खुद से नाराज़ न हो. सबसे कटे हुए, अलगाए हुए उदासीन न बैठे.. बस कुछ ऐसा करें कि ये दिन गुज़र न पाए…आज के खास दिन “मेकेनिकल लाइफ” को अलविदा कह दे. जिन चीजों को हम कई दिनों से नज़र-अंदाज़ कर रहे थे, उन्हें आज कर ही डालते है. चलिए इसी अंदाज़ में आज ऋतुराज का अभिनन्दन करें… वसंत मनाएं.. दिल को खूब खूब महकने दे..चहकने दे.. आप सभी को इस मनमोहक आनंदित कर देने वाली वसंत ऋतु
की बहुत बहुत बधाई.
आपका जीवन हमेशा वासंती रहे.

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सोनल मानसिंह के ओडिसी नृत्य ने मन मोहा – Maharana Kumbha Sangeet Samaroh 2012

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कभी कृष्ण की माखनचोरी… “मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो.. !!” तो कभी मीरा का विरह… “मेरे तो गिरधर गोपाल..!!” कभी राधा-कृष्ण का प्रेम… “सखी हे केशी मथनं उदाराम…!!” तो कभी रविन्द्र संगीत पर बादलों को उलाहना… “ऐसो श्यामल सुन्दरो…!!”
मौका था पचासवें महाराणा कुम्भा संगीत समारोह के स्वर्ण जयंती समारोह में पद्म विभूषण डॉ. सोनल मानसिंह के ओडिसी नृत्य प्रस्तुति का.. कल कार्यक्रम के तीसरे दिन टाउन हाल में सोनल मानसिंह ने पूरे तीन घंटे तक किसी दर्शक को कुर्सी से हिलने तक का मौका नहीं दिया. .
ओडिशा के कृष्ण मंदिरों से निकली नृत्य शैली, जिसे आरम्भ में प्रभु को रिझाने के लिए देवदासियां किया करती थी.. और उन्ही की विभिन्न मुद्राओं पर कोणार्क और पुरी के मंदिरों में शिल्प गढ़ा गया. उसी ओडिसी नृत्य शैली का प्रारंभिक परिचय देते हुए सोनल मानसिंह ने सूरदास के पद  “मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो” से नृत्य सेवा शुरू की. कृष्ण की विभिन्न नटखट लीलाओं… मटकी तक हाथ न पहुँचने पर लाठी से मटकी भंजन.. यशोदा द्वारा पकडे जाने पर उलाहना… और अंत में “मैया मोरी मैंने ही माखन खायो” कहकर भाग जाना.. सोनल ने पहली ही प्रस्तुति से दर्शकों का मन जीत लिया. तत्पश्चात गीत गोविन्द के अष्ट-पदी में से तीन पद लेकर राधा के प्रेम को वर्णित किया. कार्यक्रम के तीसरे दौर में रविन्द्र नाथ टेगोर के जन्म के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में रविन्द्र संगीत का एक अंश प्रस्तुत किया,जिसमे राधा काले मेघ को उलाहना दे रही है कि वो कब आकर उसे प्रेम के रस में भिगो जायेगा..

अब मौका था मीरा के पद का… मीरा का परिचय देते हुए “मेरे तो गिरधर गोपाल” पर सधी हुयी प्रस्तुति ने दर्शकों को वाह वाह करने पर मजबूर कर दिया. कार्यक्रम के अंत में साथी कलाकारों द्वारा “दशावतार” की प्रस्तुति दी गयी. नौवे अवतार “बुद्ध” के दौरान “बुद्धं शरणम् गच्छामि” के स्वर ने शांति का पाठ पढाया और  जय जगदीश हरे…के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ. सोनल के साथ नृत्य में दीनबंधु, लक्ष्मी, अनीता और सुनीता ने नृत्य सेवा की.
इस से पूर्व महाराणा कुम्भा संगीत परिषद् द्वारा सोनल मानसिंह को “एम्.एन. माथुर पुरस्कार” से सम्मानित किया गया. सोनल मानसिंह ने मेवाड़ की पुण्य भूमि को नमन करते हुए सम्मान ग्रहण किया.

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लो आ गयी लोहड़ी वे

Happy lohri

पर्व त्यौहार का सीजन नए साल में फिर शुरू हो गया है. मौसम की नयी बहार के साथ लो जी…लोहड़ी आ ही गयी. पंजाब की शान- लोहड़ी अब सिर्फ पंजाब का त्यौहार नहीं रहा…  मकर सक्रांति से एक दिन पहले जिंदगी के हर लम्हे को जीने की सिख देने वाला ये त्यौहार अब पूरा देश उसी अंदाज़ में मनाता है.
बैसाखी त्यौहार की तरह लोहड़ी का सम्बन्ध यूँ तो पंजाब के गाँव, फसल और मौसम से जुड़ा है. पौष की कड़ाके की सर्दी से बचाव… भाईचारे के शाम… मौज मस्ती… नयी फसल के अच्छे होने की उमंग.. यही है लोहड़ी. पंजाब की सभ्यता का प्रतीक बना ये त्यौहार उदयपुर में भी पंजाबी समुदाय के बीच मुख्यतः मनाया जायेगा आज शाम..
ज़रा याद कीजिये ” वीर-ज़ारा” का वो गाना..जब अमिताभ, हेमा मालिनी के साथ साथ शाहरुख़ और प्रीटी ठुमके लगते हुए कहती है… “लो आ गयी लोहड़ी वे… बना लो जोड़ी वे…” ये कहना अतियोशक्ति नहीं होगी कि फिल्मो ने सारा प्रांतवाद ख़तम करके देश को एक सूत्र में पिरो दिया..जहाँ दक्षिण का मकर-विलक्कू पर्व हो या मध्य भारत की मकर सक्रांति.. या फिर उत्तर की लोहड़ी… सब एक हो गए है…
पंजाब में लोहड़ी की रात गन्ने के रस की खीर बनायीं जाती है जो अगले दिन माघी (मकर सक्रांति) के दिन खायी जाती है. ऐसा करना शुभ माना जाता है. यूँ तो लोहड़ी के साथ कई पुरानी रस्में और रंग जुड़े हैं पर समय के साथ अब इनका भी आधुनिकीकरण हो गया है.. पहले जहाँ गाँव में लोहड़ी के दिन गीत सुने देते थे, उनका स्थान अब “डीजे” ने ले लिया है.
कुछ भी हो, लेकिन आज भी लोहड़ी रिश्तों की मधुरता, आपस के प्रेम और सुकून का प्रतीक बनी हुई है. लोहड़ी की रात सगे-सम्बन्धियों, पड़ोसियों के साथ बैठकर हंसी-मजाक, नाच-गाना रिश्तो में नयी मिठास भर देता है. UdaipurBlog.com टीम ये उम्मीद करती है कि पवित्र अग्नि का यह त्यौहार मानवता को सीधा रास्ता दिखाने और रूठो को मनाने का जरिया बनेगा…
शहर में सिख कालोनी में आज शाम लोहड़ी की पवित्र अग्नि जलेगी… हर मन कह उठेगा…लो आ गयी लोहड़ी वे… तिल- गुड खाने और डीजे पर ठुमके लगाने… आप आ रहे है न… !!!!
आप सभी को लोहड़ी की बहुत बहुत शुभकामनाएं….

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शेखर पांचाल हत्याकांड: किसकी नज़र लग गयी उदयपुर को

Shekhar Panchal Udaipur

मेरा उदयपुर अपनी खूबसूरती…. अपनी मेहमान नवाजी के लिए पूरे  विश्व में जाना जाता है….पर पिछले कुछ समय से जैसे मेरे शहर की अस्मिता को ही कोई ग्रहण लग गया लगता है….
पेसिफिक कोलेज का का एक छात्र शेखर पांचाल, जो अपनी मिलनसारिता के चलते मारा गया. उसकी इतनी ही गलती थी कि चचेरे भाई हर्षित के दोस्त और अपने से उम्र में बड़े प्रदीपसिंह भाटी (कोटा) को उसने अपना दोस्त समझा. और उसी दोस्त ने फिरौती के लिए शेखर का अपहरण कर लिया.. जब सारा उदयपुर नए साल की अगवानी में व्यस्त था तब न जाने किस स्थिति में शेखर को उदयपुर से कोटा ले जाया जा रहा था… शेखर के पिता फिरौती के रूप में 5 किलो सोना और एक करोड़ रुपये नकद देने को भी तैयार हो गए… पर बदले में क्या मिला…!!! पूरे बारह  दिन बाद  चम्बल नहर में तैरती शेखर की लाश…जिसकी पहचान तक मुश्किल… कद काठी से एक बाप ने अपने बेटे की लाश की तस्दीक की. पिछले दस दिनों से शेखर को तलाशने में हाथ पैर मार रही पुलिस शायद लाश पाकर तसल्ली कर चुकी होगी. पर उस बाप का क्या,जिसका एकलौता बेटा अब इस दुनिया में नहीं रहा. उस परिवार का क्या,जिसने पढने के लिए अपने लाल को उदयपुर भेजा… क्या उदयपुर उनके आंसू पोंछ पायेगा.. क्या पुलिस लौटा पायेगी एक माँ को उसका बेटा… उसका शेखर…!!!  सुनते आये हैं हम कि अगर पुलिस चाहे तो शहर में किसी की चप्पल तक चोरी नहीं हो सकती. पर शायद तब पुलिस भी अपने अंदाज़ में नया साल सेलिब्रेट कर रही होगी….
अख़बारों में आज ये खबर सुर्ख़ियों में है… कागजों का बड़ा हिस्सा काला कर दिया अक्षरों से… पर कहीं ये शब्द ढूंढे से न मिले कि अब आगे क्या ?? क्या फिर किसी परिवार को रोना पड़ेगा.. फिर कोई अपराधी किसी और शहर से आकर उदयपुर में जो मर्ज़ी,वो काम कर जायेगा ?? पिछले कुछ समय की घटनाओं पर नज़र डाले तो पाएंगे कि कभी किसी व्यापारी से सोना लूट लिया जाता है… किसी को लिफ्ट देने के बहाने लूटपाट कर बीच रस्ते सिसकने के लिए फेंक दिया जाता है… किसी बच्चे के सामने उसके माँ-बाप का क़त्ल हो जाता है..खेत में काम कर रही किसी वृद्धा के पैर काट कर चांदी की कड़ियाँ लूट ली जाती है… और हम… हम दंभ भरते हैं कि हमारा शहर सबसे शांतिप्रिय और खुबसूरत शहर है… क्यों किसी की इतनी हिम्मत हो जाती है … क्यों अब क़ानून का भय नहीं रहा आम लोगों में..
आरोपी प्रदीप ने अपने कर्जे से उबरने के लिए शेखर का बोहरा गणेशजी से अपहरण तो कर लिया..पर शायद बाद में घबरा गया. शेखर उसको पहचानता तो था ही.. अगर फिरौती मिलने के बाद वो शेखर को जाने देता,तब भी उसका पकड़ा जाना पक्का था… तो क्या पहले ही उसने तय कर लिया गया था कि शेखर को मरना होगा ?? और जब इतना प्रदीप सोच सकता है तो फिर उसमे और किसी बड़े अपराधी में क्या अंतर… पुलिस ने तो इतनी तफ्तीश की है कि उसने शेखर को उदयपुर से कोटा ले जाते वक़्त रस्ते में ही मार दिया.. फिर बाद में अपने परिवार वालों और दोस्तों के साथ मिलकर गाड़ी की धुलाई की. हत्या के बाद अपने दोस्त को फोन कर केरोसिन मंगवाया.. शेखर का चेहरा विकृत किया..जलाया… उसके शरीर के टुकड़े किये..एक बोरे में भरे और चम्बल में फेक दिया… और बाद में शेखर के ही फोन से फिरौती के लिए फोन….
शेखर के पिता अपने लख्ते-जिगर का शव देखकर फूट फूट कर रो पड़े… बस बार बार यही कह रहे थे..मेरे बच्चे को मार दिया..मेरे जिगर के टुकड़े की हत्या कर दी. घर पर इसकी माँ को क्या जवाब दूंगा.. उसको पता चलेगा तो बेचारी मर जाएगी.मैंने शेखर को कभी किसी बात की कमी नहीं आने दी.जब जब बाहर से आया, उसने जो मंगाया-लेकर आया. बेटा कहाँ है, एक बार सामने आ जाये..फिर मैं दुनिया से लड़ लूँगा. ..!!
इन आंसुओं को समाज कैसे पोंछ पायेगा.. क्या हमें ये मान लेना चाहिए कि अब हम भी किसी उत्तर-पूर्व के राज्य की तरह हो चुके है… अजीब संयोग है कि शेखर के मरने की खबर तब आई जब महामहिम राष्ट्रपति महोदया , महामहिम राज्यपाल, सूबे के वजीर गहलोत साहब सब शहर में ही थे …
पर क्या सारी गलती पुलिस पर थोपकर हम आज़ाद हो गए ?? आखिर कब सजग होंगे हम … आज इन्टरनेट के चलते हम हर संपर्क में आने वाले से दोस्ती कर लेते हैं. ये भी नहीं जानते कि वो कौन है, उसका अतीत क्या है… बस उसके “हाय” का जवाब बड़ी फुर्ती से दे देते है… अगर चार पांच दिनों की बातचीत के बाद वो शख्स अगर आपको कोफी- सिगरेट पीने बुलाये..आप ख़ुशी ख़ुशी अपनी मोटर बाइक उठाकर चल देते है… हर आदमी गलत होता है, ये कहना मेरा मकसद नहीं… पर शायद कई जगह हम खुद को सबसे बड़ा होशियार भी समझने लगते है.. परिवार वाले भी घर खर्च का पैसा देकर इतिश्री कर लेते है. कही न कही गलती हम भी करते है…

शेखर की आत्मा को उदयपुर ब्लॉग की श्रृद्धांजलि और आपसे आखिरी सवाल… आखिर कब सजग होंगे हम …!!!!!

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मेवाड़ राजवंश का संक्षिप्त इतिहास

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वीर प्रसूता मेवाड की धरती राजपूती प्रतिष्ठा, मर्यादा एवं गौरव का प्रतीक तथा सम्बल है। राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी अंचल का यह राज्य अधिकांशतः अरावली की अभेद्य पर्वत श्रृंखला से परिवेष्टिता है। उपत्यकाओं के परकोटे सामरिक दृष्टिकोण के अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। >मेवाड अपनी समृद्धि, परम्परा, अधभूत शौर्य एवं अनूठी कलात्मक अनुदानों के कारण संसार के परिदृश्य में देदीप्यमान है। स्वाधिनता एवं भारतीय संस्कृति की अभिरक्षा के लिए इस वंश ने जो अनुपम त्याग और अपूर्व बलिदान दिये सदा स्मरण किये जाते रहेंगे। मेवाड की वीर प्रसूता धरती में रावल बप्पा, महाराणा सांगा, महाराण प्रताप जैसे सूरवीर, यशस्वी, कर्मठ, राष्ट्रभक्त व स्वतंत्रता प्रेमी विभूतियों ने जन्म लेकर न केवल मेवाड वरन संपूर्ण भारत को गौरान्वित किया है। स्वतन्त्रता की अखल जगाने वाले प्रताप आज भी जन-जन के हृदय में बसे हुये, सभी स्वाभिमानियों के प्रेरक बने हुए है। मेवाड का गुहिल वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। मान्यता है कि सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। श्री गौरीशंकर ओझा की पुस्तक “मेवाड़ राज्य का इतिहास” एक ऐसी पुस्तक है जिसे मेवाड़ के सभी शासकों के नाम एवं क्रम के लिए सर्वाधिक प्रमाणिक माना जाता है.

मेवाड में गहलोत राजवंश – बप्पा ने सन 734 ई० में चित्रांगद गोरी परमार से चित्तौड की सत्ता छीन कर मेवाड में गहलौत वंश के शासक का सूत्रधार बनने का गौरव प्राप्त किया। इनका काल सन 734 ई० से 753 ई० तक था। इसके बाद के शासकों के नाम और समय काल निम्न था –
  1. रावल बप्पा ( काल भोज ) – 734 ई० मेवाड राज्य के गहलौत शासन के सूत्रधार।
  2. रावल खुमान – 753 ई०
  3. मत्तट – 773 – 793 ई०
  4. भर्तभट्त – 793 – 813 ई०
  5. रावल सिंह – 813 – 828 ई०
  6. खुमाण सिंह – 828 – 853 ई०
  7. महायक – 853 – 878 ई०
  8. खुमाण तृतीय – 878 – 903 ई०
  9. भर्तभट्ट द्वितीय – 903 – 951 ई०
  10. अल्लट – 951 – 971 ई०
  11. नरवाहन – 971 – 973 ई०
  12. शालिवाहन – 973 – 977 ई०
  13. शक्ति कुमार – 977 – 993 ई०
  14. अम्बा प्रसाद – 993 – 1007 ई०
  15. शुची वरमा – 1007- 1021 ई०
  16. नर वर्मा – 1021 – 1035 ई०
  17. कीर्ति वर्मा – 1035 – 1051 ई०
  18. योगराज – 1051 – 1068 ई०
  19. वैरठ – 1068 – 1088 ई०
  20. हंस पाल – 1088 – 1103 ई०
  21. वैरी सिंह – 1103 – 1107 ई०
  22. विजय सिंह – 1107 – 1127 ई०
  23. अरि सिंह – 1127 – 1138 ई०
  24. चौड सिंह – 1138 – 1148 ई०
  25. विक्रम सिंह – 1148 – 1158 ई०
  26. रण सिंह ( कर्ण सिंह ) – 1158 – 1168 ई०
  27. क्षेम सिंह – 1168 – 1172 ई०
  28. सामंत सिंह – 1172 – 1179 ई०

(क्षेम सिंह के दो पुत्र सामंत और कुमार सिंह। ज्येष्ठ पुत्र सामंत मेवाड की गद्दी पर सात वर्ष रहे क्योंकि जालौर के कीतू चौहान मेवाड पर अधिकार कर लिया। सामंत सिंह अहाड की पहाडियों पर चले गये। इन्होने बडौदे पर आक्रमण कर वहां का राज्य हस्तगत कर लिया। लेकिन इसी समय इनके भाई कुमार सिंह पुनः मेवाड पर अधिकार कर लिया। )

  1. कुमार सिंह – 1179 – 1191 ई०
  2. मंथन सिंह – 1191 – 1211 ई०
  3. पद्म सिंह – 1211 – 1213 ई०
  4. जैत्र सिंह – 1213 – 1261 ई०
  5. तेज सिंह -1261 – 1273 ई०
  6. समर सिंह – 1273 – 1301 ई०

(समर सिंह का एक पुत्र रतन सिंह मेवाड राज्य का उत्तराधिकारी हुआ और दूसरा पुत्र कुम्भकरण नेपाल चला गया। नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं। )

35. रतन सिंह ( 1301-1303 ई० ) – इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया। प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया। गोरा – बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।
36. अजय सिंह ( 1303 – 1326 ई० ) – हमीर राज्य के उत्तराधिकारी थे किन्तु अवयस्क थे। इसलिए अजय सिंह गद्दी पर बैठे।
37. महाराणा हमीर सिंह ( 1326 – 1364 ई० ) – हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारण की । इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं।
38. महाराणा क्षेत्र सिंह ( 1364 – 1382 ई० )
39. महाराणा लाखासिंह ( 1382 – 1421 ई० ) – योग्य शासक तथा राज्य के विस्तार करने में अहम योगदान। इनके पक्ष में ज्येष्ठ पुत्र चुडा ने विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा की और पिता से हुई संतान मोकल को राज्य का उत्तराधिकारी मानकर जीवन भर उसकी रक्षा की।
40. महाराणा मोकल ( 1421 – 1433 ई० )
41. महाराणा कुम्भा ( 1433 – 1469 ई० ) – इन्होने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया बल्कि योग्य प्रशासक, सहिष्णु, किलों और मन्दिरों के निर्माण के रुप में ही जाने जाते हैं। कुम्भलगढ़ इन्ही की देन है. इनके पुत्र उदा ने इनकी हत्या करके मेवाड के गद्दी पर अधिकार जमा लिया।
42. महाराणा उदा ( उदय सिंह ) ( 1468 – 1473 ई० ) – महाराणा कुम्भा के द्वितीय पुत्र रायमल, जो ईडर में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे, आक्रमण करके उदय सिंह को पराजित कर सिंहासन की प्रतिष्ठा बचा ली। अन्यथा उदा पांच वर्षों तक मेवाड का विनाश करता रहा।
43. महाराणा रायमल ( 1473 – 1509 ई० ) – सबसे पहले महाराणा रायमल के मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन को पराजित किया और पानगढ, चित्तौड्गढ और कुम्भलगढ किलों पर पुनः अधिकार कर लिया पूरे मेवाड को पुनर्स्थापित कर लिया। इसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि कुछ समय के लिये बाह्य आक्रमण के लिये सुरक्षित हो गया। लेकिन इनके पुत्र संग्राम सिंह, पृथ्वीराज और जयमल में उत्तराधिकारी हेतु कलह हुआ और अंततः दो पुत्र मारे गये। अन्त में संग्राम सिंह गद्दी पर गये।
44. महाराणा सांगा ( संग्राम सिंह ) ( 1509 – 1527 ई० ) – महाराणा सांगा उन मेवाडी महाराणाओं में एक था जिसका नाम मेवाड के ही वही, भारत के इतिहास में गौरव के साथ लिया जाता है। महाराणा सांगा एक साम्राज्यवादी व महत्वाकांक्षी शासक थे, जो संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार करना चाहते थे। इनके समय में मेवाड की सीमा का दूर – दूर तक विस्तार हुआ। महाराणा हिन्दु रक्षक, भारतीय संस्कृति के रखवाले, अद्वितीय योद्धा, कर्मठ, राजनीतीज्ञ, कुश्ल शासक, शरणागत रक्षक, मातृभूमि के प्रति समर्पित, शूरवीर, दूरदर्शी थे। इनका इतिहास स्वर्णिम है। जिसके कारण आज मेवाड के उच्चतम शिरोमणि शासकों में इन्हे जाना जाता है।
45. महाराणा रतन सिंह ( 1528 – 1531 ई० )
46. महाराणा विक्रमादित्य ( 1531 – 1534ई० ) – यह अयोग्य सिद्ध हुआ और गुजरात के बहादुर शाह ने दो बार आक्रमण कर मेवाड को नुकसान पहुंचाया इस दौरान 1300 महारानियों के साथ कर्मावती सती हो गई। विक्रमादित्य की हत्या दासीपुत्र बनवीर ने करके 1534 – 1537 तक मेवाड पर शासन किया। लेकिन इसे मान्यता नहीं मिली। इसी समय सिसोदिया वंश के उदय सिंह को पन्नाधाय ने अपने पुत्र की जान देकर भी बचा लिया और मेवाड के इतिहास में प्रसिद्ध हो गई।
47. महाराणा उदय सिंह ( 1537 – 1572 ई० ) – मेवाड़ की राजधानी चित्तोड़गढ़ से उदयपुर लेकर आये. गिर्वा की पहाड़ियों के बीच उदयपुर शहर इन्ही की देन है. इन्होने अपने जीते जी गद्दी ज्येष्ठपुत्र  जगमाल को दे दी, किन्तु उसे सरदारों ने नहीं माना, फलस्वरूप छोटे बेटे प्रताप को गद्दी मिली.

48. महाराणा प्रताप ( 1572 -1597 ई० ) – इनका जन्म 9 मई 1540 ई० मे हुआ था। राज्य की बागडोर संभालते समय उनके पास न राजधानी थी न राजा का वैभव, बस था तो स्वाभिमान, गौरव, साहस और पुरुषार्थ। उन्होने तय किया कि सोने चांदी की थाली में नहीं खाऐंगे, कोमल शैया पर नही सोयेंगे, अर्थात हर तरह विलासिता का त्याग करेंगें। धीरे – धीरे प्रताप ने अपनी स्थिति सुधारना प्रारम्भ किया। इस दौरान मान सिंह अकबर का संधि प्रस्ताव लेकर आये जिसमें उन्हे प्रताप के द्वारा अपमानित होना पडा।
परिणाम यह हुआ कि 21 जून 1576 ई० को हल्दीघाटी नामक स्थान पर अकबर और प्रताप का भीषण युद्ध हुआ। जिसमें 14 हजार राजपूत मारे गये। परिणाम यह हुआ कि वर्षों प्रताप जंगल की खाक छानते रहे, जहां घास की रोटी खाई और निरन्तर अकबर सैनिको का आक्रमण झेला, लेकिन हार नहीं मानी। ऐसे समय भीलों ने इनकी बहुत सहायता की।अन्त में भामा शाह ने अपने जीवन में अर्जित पूरी सम्पत्ति प्रताप को देदी। जिसकी सहायता से प्रताप चित्तौडगढ को छोडकर अपने सारे किले 1588 ई० में मुगलों से छिन लिया। 19 जनवरी 1597 में चावंड में प्रताप का निधन हो गया।

49. महाराणा अमर सिंह -(1597 – 1620 ई० ) – प्रारम्भ में मुगल सेना के आक्रमण न होने से अमर सिंह ने राज्य में सुव्यवस्था बनाया। जहांगीर के द्वारा करवाये गयें कई आक्रमण विफ़ल हुए। अंत में खुर्रम ने मेवाड पर अधिकार कर लिया। हारकर बाद में इन्होनें अपमानजनक संधि की जो उनके चरित्र पर बहुत बडा दाग है। वे मेवाड के अंतिम स्वतन्त्र शासक है।
50. महाराणा कर्ण सिद्ध ( 1620 – 1628 ई० ) –
इन्होनें मुगल शासकों से संबंध बनाये रखा और आन्तरिक व्यवस्था सुधारने तथा निर्माण पर ध्यान दिया।
51.महाराणा जगत सिंह ( 1628 – 1652 ई० )
52. महाराणा राजसिंह ( 1652 – 1680 ई० ) – यह मेवाड के उत्थान का काल था। इन्होने औरंगजेब से कई बार लोहा लेकर युद्ध में मात दी। इनका शौर्य पराक्रम और स्वाभिमान महाराणा प्रताप जैसे था। इनकों राजस्थान के राजपूतों का एक गठबंधन, राजनितिक एवं सामाजिक स्तर पर बनाने में सफ़लता अर्जित हुई। जिससे मुगल संगठित लोहा लिया जा सके। महाराणा के प्रयास से अंबेर, मारवाड और मेवाड में गठबंधन बन गया। वे मानते हैं कि बिना सामाजिक गठबंधन के राजनीतिक गठबंधन अपूर्ण और अधूरा रहेगा। अतः इन्होने मारवाह और आमेर से खानपान एवं वैवाहिक संबंध जोडने का निर्णय ले लिया। राजसमन्द झील एवं राजनगर इन्होने ही बसाया.
53. महाराणा जय सिंह ( 1680 – 1698 ई० ) – जयसमंद झील का निर्माण करवाया.
54. महाराणा अमर सिंह द्वितीय ( 1698 – 1710 ई० ) – इसके समय मेवाड की प्रतिष्ठा बढी और उन्होनें कृषि पर ध्यान देकर किसानों को सम्पन्न बना दिया।
55. महाराणा संग्राम सिंह ( 1710 – 1734 ई० ) –
महाराणा संग्राम सिंह दृढ और अडिग, न्यायप्रिय, निष्पक्ष, सिद्धांतप्रिय, अनुशासित, आदर्शवादी थे। इन्होने 18 बार युद्ध किया तथा मेवाड राज्य की प्रतिष्ठा और सीमाओं को न केवल सुरक्षित रखा वरन उनमें वृध्दि भी की।
56. 
महाराणा जगत सिंह द्वितीय ( 1734 – 1751 ई० ) – ये एक अदूरदर्शी और विलासी शासक थे। इन्होने जलमहल बनवाया। शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को अपना “पगड़ी बदल” भाई बनाया और उन्हें अपने यहाँ पनाह दी.
57.
महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय ( 1751 – 1754 ई० )
58. महाराणा राजसिंह द्वितीय ( 1754 – 1761 ई० )
59. महाराणा अरिसिंह द्वितीय ( 1761 – 1773 ई० )
60.
महाराणा हमीर सिंह द्वितीय ( 1773 – 1778 ई० ) – इनके कार्यकाल में सिंधिया और होल्कर ने मेवाड राज्य को लूटपाट करके तहस – नहस कर दिया।
61. महाराणा भीमसिंह ( 1778 – 1828 ई० ) –
इनके कार्यकाल में भी मेवाड आपसी गृहकलह से दुर्बल होता चला गया।  13 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी और मेवाड राज्य में समझौता हो गया। अर्थात मेवाड राज्य ईस्ट इंडिया के साथ चला गया।मेवाड के पूर्वजों की पीढी में बप्पारावल, कुम्भा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे तेजस्वी, वीर पुरुषों का प्रशासन मेवाड राज्य को मिल चुका था। प्रताप के बाद अधिकांश पीढियों में वह क्षमता नहीं थी जिसकी अपेक्षा मेवाड को थी। महाराजा भीमसिंह योग्य व्यक्ति थे\ निर्णय भी अच्छा लेते थे परन्तु उनके क्रियान्वयन पर ध्यान नही देते थे। इनमें व्यवहारिकता का आभाव था।ब्रिटिश एजेन्ट के मार्गदर्शन, निर्देशन एवं सघन पर्यवेक्षण से मेवाड राज्य प्रगति पथ पर अग्रसर होता चला गया।
62.
महाराणा जवान सिंह ( 1828 – 1838 ई० ) – निःसन्तान। सरदार सिंह को गोद लिया ।
63. महाराणा सरदार सिंह ( 1838 – 1842 ई० ) – निःसन्तान। भाई स्वरुप सिंह को गद्दी दी.
64. 
महाराणा स्वरुप सिंह ( 1842 – 1861 ई० ) – इनके समय 1857 की क्रान्ति हुई। इन्होने विद्रोह कुचलने में अंग्रेजों की मदद की।
65. महाराणा शंभू सिंह ( 1861 – 1874 ई० ) – 
1868 में घोर अकाल पडा। अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढा।
66 .
महाराणा सज्जन सिंह ( 1874 – 1884 ई० ) – बागोर के महाराज शक्ति सिंह के कुंवर सज्जन सिंह को महाराणा का उत्तराधिकार मिला।  इन्होनें राज्य की दशा सुधारनें में उल्लेखनीय योगदान दिया।
67. महाराणा फ़तह सिंह ( 1883 – 1930 ई० ) – सज्जन सिंह के निधन पर शिवरति शाखा के गजसिंह के अनुज एवं दत्तक पुत्र फ़तेहसिंह को महाराणा बनाया गया। फ़तहसिंह कुटनीतिज्ञ, साहसी स्वाभिमानी और दूरदर्शी थे। संत प्रवृति के व्यक्तित्व थे. इनके कार्यकाल में ही किंग जार्ज पंचम ने दिल्ली को देश की राजधानी घोषित करके दिल्ली दरबार लगाया. महाराणा दरबार में नहीं गए . 
68. महाराणा भूपाल सिंह (1930 – 1955 ई० ) –
इनके समय  में भारत को स्वतन्त्रता मिली और भारत या पाक मिलने की स्वतंत्रता। भोपाल के नवाब और जोधपुर के महाराज हनुवंत सिंह पाक में मिलना चाहते थे और मेवाड को भी उसमें मिलाना चाहते थे। इस पर उन्होनें कहा कि मेवाड भारत के साथ था और अब भी वहीं रहेगा। यह कह कर वे इतिहास में अमर हो गये। स्वतंत्र भारत के वृहद राजस्थान संघ के भूपाल सिंह प्रमुख बनाये गये।
69. महाराणा भगवत सिंह ( 1955 – 1984 ई० )
70. श्रीजी अरविन्दसिंह एवं महाराणा महेन्द्र सिंह (1984 ई० से निरंतर..)


इस तरह 556 ई० में जिस गुहिल वंश की स्थापना हुई बाद में वही सिसोदिया वंश के नाम से जाना गया । जिसमें कई प्रतापी राजा हुए, जिन्होने इस वंश की मानमर्यादा, इज्जत और सम्मान को न केवल बढाया बल्कि इतिहास के गौरवशाली अध्याय में अपना नाम जोडा । यह वंश कई उतार-चढाव और स्वर्णिम अध्याय रचते हुए आज भी अपने गौरव और श्रेष्ठ परम्परा के लिये जाना पहचाना जाता है। धन्य है वह मेवाड और धन्य सिसोदिया वंश जिसमें ऐसे ऐसे अद्वीतिय देशभक्त दिये।

(साभार – मेवाड़ राजवंश का इतिहास – गौरीशंकर ओझा)

Post Contribution by : Arya Manu

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आप सुन रहे है आर. जे. प्रदीप को…..!!!!

दुनिया के सबसे खुबसूरत शहर की खुबसूरत सुबह की शुरुआत एक आवाज़ से हुआ करती है…
आप सुन रहे है …… ऍफ़.एम्. .. और बन्दे को आर.जे. प्रदीप कहते है… जी हाँ उदयपुर ब्लॉग आज बात कर रहा है एक प्यारी सी मुस्कराहट के धनी….जिसे शहर का एक ऑटो वाला भी ताल्लुक रखता है तो किसी महंगे फ्लेट में रहनी वाली एक आंटी भी…
जब से उदयपुर में ऍफ़.एम्. आया…तब से ये आवाज़ उदयपुर की एक पहचान सी बन गयी है…
जब कभी हम खुद को अपनी माटी से दूर महसूस कर रहे होते हैं…तभी स्वर सुनाई देता है… “उदयपुर थानों ध्यान कठिने… आपरो प्रदीप अठिने..” कभी ठेठ देहाती शब्दों का अम्बार तो कभी ऐसी बातें कि लगता है कोई बड़े मेनेजमेंट का अफसर रु-ब-रू हो रहा है…
हमारे हर दुःख-सुख में जो आवाज़ हमारे साथ महसूस होती है… हर बड़े मॉल और हर एक लोकल ऑटो में सुनी जाने वाली आवाज़….

एक आवाज़, जो हर बार हमें एक रास्ता दिखा रही होती है…” दोस्तों…जब कभी हम पानी की  सतह पर तैर रहे बुलबुले की तरह टूट रहे होते हैं…फिर बन रहे होते हैं…तब याद रखो…कोई है…जो सिर्फ आपके लिए जी रहा है…”
जब कभी खुद को अकेला महसूस कर रहे होते है…तो स्वर सुनाई देते है… ” दोस्तों अगर अकेलापन साल रहा है तो फ़तेह सागर जाओ… कुछ वक़्त खुद के लिए बिताओ..मोबाईल बंद कर दो.. और आस-पास की आवाज़ से भी कुछ देर के लिए बेखबर हो जाओ… तुम कुछ हटकर…कुछ और ज्यादा पाकर ही वहा से लौट कर आओगे, मेरा विश्वास है …”
क्या हमने कभी सोचा भी कि वो हमारी आर. जे. प्रदीप की आवाज़ हमारी ज़िन्दगी का हिस्सा ही बन जाएगी…..


मैं रातों के अंधेरो में खोया सितारा हूँ..
हजारो-लाखों में मैं भी एक आवारा हूँ..
लाख कह दे, ज़माना मुझे तेरा पागल,
तुम ठुकराओगे, फिर भी मैं तुम्हारा हूँ…

हमेशा गुनगुनाने वाले इस शख्स ने ज़िन्दगी में कम दुःख नहीं देखा… अपने जूनून को आयाम देने से पहले परिवार वालो के ताने भी सुने तो कभी अपनी शाम हिरन मगरी के ऑटो स्टेंड पर भी बिताई… किसी मोबाईल स्टोर में सेल्समेन बनने में भी गुरेज नहीं किया… तो मजदूरों के साथ किसी ट्रक को ख़ाली करने में भी हाथ आजमाया… शायद इसीलिए प्रदीप की आवाज़ में इतने रंग देखने को मिलते है… सुखेर में एक चाय की थडी पर जब पटेल जी वक़्त पर दूध लेकर नहीं आते तो थडी वाले पंडित जी प्रदीप को फोन करते है… और पटेलजी दूध लेकर पहुच जाते है… प्रदीप की गाडी सुबह ख़राब हो जाति है और किसी ऑटो  में बैठकर जब स्टूडियो आ रहे होते है तो ऑटो वाला भी बेझिझक कोई डाईलाग सुनने की फरमाइश करने लगता है…
जब कभी कोई सुनने वाला एक बार प्रदीप को फोन कर दे…दो उसकी आवाज़ उस कंप्यूटर में हमेशा के लिए फीड हो जाती है…जी हाँ..प्रदीप अगली बार उस लिसनर को उसके नाम से पुकारेगा…
प्रदीप, एक ऐसी शख्सियत..जिसमे हजारो शख्सियतें… हजारो तहजीबें…
प्रदीप तो बस यही कहता मिलता है कि…

“जितना दिया सरकार ने मुझको…
उतनी मेरी औकात नहीं…
ये तो करम है उनका…
वर्ना मुझमे ऐसी कोई बात ही नहीं…”


किसी कोलोनी से कोई गरिमा फोन करती है और कहती है… प्रदीप, तुम अकेले हो जिसने उदयपुर को एक कर दिया… पहले लोग किसी को फोन करने में झिझकते थे….पर रेडियो पर तुमको फोन करनेमे किसी को झिझक नहीं होती… तुम हमारी  आवाज़ हो…
आज प्रदीप की उसी जिंदादिली को उदयपुर ब्लॉग परिवार सलाम करता है…..
सलाम प्रदीप….