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गुरु पूर्णिमा: जानिए मेवाड़ की अनोखी गुरु शिष्य की जोड़ी

हम सभी के जीवन में गुरु का बहुत विशेष महत्व होता है। हमारी भारतीय संस्कृति में गुरु को भगवान से भी ऊँचा दर्जा दिया गया है। एक गुरु का जीवन में होना बहुत मायने रखता है क्योंकि एक गुरु ही है जो शिष्यों को अंधकार से निकालकर प्रकाश की और ले जाता है, सही गलत का अर्थ समझाता है, जीवन में सही दिशा की और अग्रसर करता है। गुरु के ज्ञान और संस्कार की वजह से ही एक शिष्य का जीवन सफल होता है और वह ज्ञानी बनता है। गुरु किसी भी मंदबुद्धि शिष्य को ज्ञानी बना देते है।

गुरु की महत्वता को देखते हुए ही पुराने ग्रंथों व किताबों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उपाधि दी गई है।
हर व्यक्ति को जीवन में ज्ञान की बहुत आवश्यकता होती है तभी वह अपने जीवन में उन्नति के मार्ग पर चल पाता है। एक विद्यार्थी तभी चमक सकता है, जब उसे सही शिक्षक का प्रकाश मिलता है। एक व्यक्ति सभ्य और संस्कारवान सिर्फ उसके गुरु की वजह से ही बनता है। एक सभ्य और शिक्षित समाज के निर्माण में यदि सर्वाधिक योगदान किसी का होता है तो वे हमारे गुरु का होता है।

महाभारत के रचयिता एवं आदि गुरु वेद व्यास जी की जयंती को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता हैं। आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन गुरु पूर्णिमा का यह त्यौहार मनाया जाता है। प्राचीनकाल से ही गुरु और शिष्य की जोड़ी चली आ रही है। इतिहास में भी हमें कई सारे गुरुओं का उल्लेख मिलता है – महाभारत काव्य में शिष्य अर्जुन, एकलव्य, कौरवों और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य का उल्लेख है। कर्ण के गुरु परशुराम जी थे। चन्द्रगुप्त के गुरु चाणक्य थे। ऐसे ही हमें कई सारे गुरु शिष्य की जोड़ी की कई सारी कहानियों के बखान मिल जाएंगे।

क्या आप जानते है ऐसी ही गुरु शिष्य की एक अनोखी जोड़ी जो हमारे मेवाड़ के इतिहास जगत में भी है। विश्व प्रसिद्ध “महर्षि हरित राशि” और “बप्पा रावल” की जोड़ी । हरित राशि, बप्पा रावल  के गुरु थे। हरित राशि एकलिंगनाथ जी के बहुत बड़े भक्त थे और बप्पा रावल जिन्हे “कालभोज” के नाम से भी जाना जाता है।

बप्पा रावल वल्लभीपुर से आए थे, जो अब भारत के गुजरात राज्य में है। वह उदयपुर से 20 किलोमीटर दूर कैलाशपुरी गांव के पास महर्षि हरित राशि के आश्रम के छात्रों में से एक थे। अपनी मृत्यु से पहले, हरित राशी ने अपने सभी शिष्यों में से बप्पा रावल को “दीवान” के रूप में चुना और श्री एकलिंगजी नाथ की पूजा और प्रशासन के अधिकार की जिम्मेदारी सौंप दी। उदयपुर के उत्तर में कैलाशपुरी में स्थित इस मन्दिर का निर्माण 734 ई. में बप्पा रावल ने ही करवाया। इसके निकट हरीत ऋषि का आश्रम भी है।

bappa rawal
बप्पा रावल

बप्पा रावल पूर्ण रूप से से अपने गुरु के प्रति समर्पित थे। हरित राशि ने अपने पसंदीदा छात्र को मेवाड़ राज्य प्रदान किया और अपने राज्य के शासन के दिशा-निर्देश और मुख्य नियम तैयार करके दिए। इसके बाद बप्पा रावल 8वीं शताब्दी की शुरुआत में मेवाड़ के संस्थापक बने।

आज “महर्षि हरित राशि पुरस्कार” एक राज्य पुरस्कार है। वैदिक संस्कृति, प्राचीन ‘शास्त्र’ और ‘कर्मकांड’ के माध्यम से समाज को जगाने में स्थायी मूल्य के कार्य करने वाले विद्वानों को सम्मानित करने के लिए इस पुरस्कार की स्थापना की गई है।

हमारी यहां गुरु सम्मान की परम्परा हजारो सालों से चलती हुई आई है औरआज तक जीवित हैं। हमें हमारे जीवन में गुरु की महिमा को समझना चाहिए उनका आदर सत्कार करना चाहिए। एक गुरु ही है जो हमारे जीवन को बदल सकता है सत्य की राह दिखा सकता है। गुरु पूर्णिमा का पर्व एक इसी तरह का अवसर हैं जब हम गुरु दक्षिण देकर अपने प्रिय गुरु के प्रति श्रद्धा भाव प्रकट कर सके।

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जानिए उदयपुर शहर के बीचों बीच बसा एक नगर ऐसा भी

व्यस्त ज़िन्दगी और शहर की चकाचौंध से कभी फुर्सत मिले तो ज़रा गाँव हो आना, कभी गाँव की याद आए तो वहां हो आना। शांत, खूबसूरत, प्राकृतिक आलोकिक, मनमोहक वातावरण में हो आना। 

हरे भरे घास के मैदान, खेत खलिहान, मंदिर, कुआँ, गाँव के वो कच्चे मकान ,गाय भैंस ,पशुपालन, फसल,चंचल हवा, पक्षियों की चहचहाट,गोबर से थपे कंडे,छोटा सा जलाशय जहाँ बच्चो को स्नान करते देख खुद के बचपन की स्मृति हो जाती है। 

हम सभी को गाँव बहुत प्यारा होता है, शहर मे व्यस्त हर इंसान छुट्टिया लेकर अपने गाँव जाना चाहता है ,वहाँ रहना चाहता है ,प्रकृति के जितना करीब रहता है उतना अच्छा महसूस करता है। गाँव के इलाकों में रहने वाले लोग शांतिपूर्ण जीवन जीते हैं लेकिन वे कई आधुनिक सुविधाओं से रहित होते हैं जो जीवन को आरामदायक बनाते हैं। यहां लोग एक साधारण जीवन जीते हैं और जो कुछ भी उनके पास होता है उसमें संतुष्ट रहते हैं। गांव आज भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति के आधार स्तम्भ है। गाँव में परम्पराओ का निर्वाहन अच्छे से किया जाता है। 

गाँवों में त्योहार सामूहिक रूप से मनाए जाते हैं और इस तरह उस दौरान खुशी और खुशी दोगुनी हो जाती है। वे एक-दूसरे के साथ सद्भाव में रहते हैं। वे रिश्तों को महत्व देते हैं और उसी को बनाए रखने के प्रयास करते हैं। वे अपने पड़ोस में रहने वाले लोगों के बारे में अच्छी तरह से जानते हैं और उनकी ज़रूरत के समय में उनके द्वारा खड़े होते हैं।

आइये जानते है, उदयपुर शहर के बीचों -बीच बसी एक छोटी सी मानव बस्ती जो संपूर्ण गाँव का वर्णन करती है। वैसे तो यह गाँव शहर में है, इसका रास्ता भी शहर से जुड़ा है और यह पूरी तरह गाँव भी नहीं है, पर यह जगह गाँव का वर्णन जरुर करती है, गाँव होने का एहसास जरूर करवाती है । यह जगह प्रकृति के करीब है। इसके साथ ही इस जगह पर भ्रमण करके गाँव की कला, संस्कृति और परंपरा को अच्छी तरह समझ सकते है। गाँव को महसूस जरूर किया जा सकता है। 

यह एक ऐसी जगह है,जो है तो आम सड़क ही पर कुछ देर के लिए वहाँ से गुजरने पर संपूर्ण सुखद गाँव का अनुभव होता है। जिसे देख कर मन और दिल तरोताज़ा हो जाता है। इस जगह आकर संपूर्ण गाँव के निर्बाध दृश्य को देखा जा सकता है।

आइए जानते है शहर में ऐसी कोनसी जगह है जो गाँव का अनुभव करवाती है, यूनिवर्सिटी रोड से शोभागपुरा 100 फीट रोड, पेट्रोल पंप के सामने, अशोक नगर के आगे यह रास्ता निकल रहा है, जो सीपीएस स्कूल की तरफ निकल रहा है। यही वह जगह है जो गाँव का वर्णन करती है।

शाम के समय अगर वक्त मिले तो इस गांव में हो आना ज़रा इसे निहार आना, अपने बचपन की गलियों से मिल आना।

 

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आज से फतहसागर पर ड्रैगन बोट रेस

शहर के फतहसागर झील पर 13 व 14 जुलाई को ड्रैगन बोट रेस का आयोजन किया जाएगा। इसमें से भारतीय टीम का चयन किया जाएगा। इस खेल में राष्ट्रीय एंटी डोपिंग एजेंसी ( नाडा) मौजूद रहेगी, जो खिलाड़ियों के लिए प्रतिबंधित एवं शक्तिवर्धक दवाओं की जांच करेगी। इस अवसर पर पारंपारिक तरह से शहरवासी ड्रैगन बोट देखने का लुत्फ़ उठा सकेंगे। उदयपुर शहर अब तक स्पोर्ट्स से जुडी राष्ट्रीय स्तर की 5 बड़ी प्रतियोगिताएं करवा चुका है।

चेकोस्लोवाकिया में होने वाली अंतर्राष्ट्रीय ड्रैगन बोट प्रतियोगिता के लिए भारतीय टीम का चयन यही किया जा रहा है। राजस्थान के कयाकिंग एवं केनाइंग संघ अध्यक्ष आर.के. धाभाई ने बताया कि चयन प्रक्रिया दो दिन सुबह शाम के चार सत्रों में होगी, जिसमें 100 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय खिलाड़ी भाग ले सकेंगे। बुधवार सुबह शाम के सत्र में 200 मीटर पुरुष,महिला व मिक्स रेस एवं फिजिकल टेस्ट होगा। यही रेस गुरुवार को 500/1000 मीटर की होगी।

यह सारे परीक्षण फतहसागर झील एवं लवकुश स्टेडियम में होंगे। इस बीच खिलाड़ियों को पानी में ड्रैगन बोट चयन प्रक्रिया और शारीरक क्षमता के कई सारे परीक्षणों से गुजरना होगा। राजस्थान कयाकिंग एवं केनोइंग संघ के सचिव महेश पिम्पलकर ने बताया कि आयोजन के शुरुआत में अध्यक्षता संभागीय आयुक्त राजेंद्र भट्ट तथा मुख्य अतिथि के रूप में विधायक प्रीति गजेंद्र सिंह शक्तावत रहेगी।

चयन समिति में मौजूद रहेंगे –
चेयरमैन स्टैंडिंग पेडल नवल सिंह चुण्डावत ने बताया कि चयन समिति में डॉ.बी.एस.वनार, महासचिव भारतीय कयाकिंग एवं केनाइंग संघ, दिलीप सिंह चौहान, चेयरमैन भारतीय ड्रैगन बोट, अजय अग्रवाल चेयरमैन राजस्थान ड्रैगन बोट, सुनील केवट अंतराष्ट्रीय खिलाड़ी एवं कोच, नाजिस मंसूरी राष्ट्रीय कोच, अनिल राठी भारतीय सेना के कोच तथा स्थानीय स्तर पर केनो स्प्रिंट कोच निश्चय सिंह चौहान, दीपक गुप्ता, रणवीर सिंह राणावत, कुलदीपक पालीवाल परीक्षणों में शामिल रहेंगे।

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राजस्थान के आखिरी सफ़ेद बाघ की मौत

जयपुर स्थित नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क के सफ़ेद बाघ चीनू की मौत हो गई। वह प्रदेश का एकमात्र आखिरी सफ़ेद बाघ था जिसने रविवार को दोपहर में तड़प तड़प कर अपना दम तोड़ दिया। चीनू को पिछले साल 17 मार्च को ज़ू एक्सचेंज से जयपुर लाया गया था। वह छः दिन से बीमार था और उसने एक सप्ताह से खाना पीना भी छोड़ दिया था। क्षेत्रीय वन अधिकारी गौरव ने बताया की 5 दिन से जयपुर,चेन्नई,बरेली,ओडिशा इन जगह के विशेषज्ञों द्वारा चीनू का इलाज चल रहा था।

मेडिकल बोर्ड ने मौत का कारण हार्ट अटैक बताया है और यह भी बताया है कि बाघ की एक किडनी सामान्य की तुलना में बड़ी पाई गई थी। बाघ के सैम्पलों को बरेली स्थित IVRI में जांच के लिए भेजा गया था। वहां से रिपोर्ट मिलने के बाद ही मौत का कारण पूरी तरह स्पष्ट हो पाएगा।

नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क तीन साल से दुर्लभ वन्यजीवों के लिए मौत का स्थान बना हुआ है। यहाँ 27 सितम्बर 2019 को केनाइन डिस्टेंपर से बाघ सीता और 4 अगस्त 2020 को लेप्टोस्पायरोसिस से बाघ राजा की मौत हो गई थी। चीनू प्रदेश का आखिरी सफ़ेद बाघ था। अब प्रदेश में एक भी सफ़ेद बाघ नहीं बचा है।

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उदयपुर – अहमदाबाद के 32 किमी ट्रैक पर 24 तरह की कमियां

उदयपुर  -अहमदाबाद आमान परिवर्तन कार्य के दौरान सीआरएस निरिक्षण की रिपोर्ट में निकली कई सारी कमियां । खारवाचंदा से जयसमंद रोड के बीच 32 किलोमीटर ट्रैक पर कुल 24 तरह की कमियां पाई गई है। दो दिन के इस सीआरएस निरिक्षण की रिपोर्ट में कई सारी जगहों में भारी चूक होने जैसे स्थितियां पाई गई है। ट्रैक पर मिली इतनी कमियों को जल्द सुधार पाना मुश्किल है। ऐसे में कमियां सुधारे जाने पर इसकी रिपोर्ट चीफ रेलवे सुरक्षा कमिश्नर को भेजनी होगी। इसके बाद ही रेलवे बोर्ड की तरफ से नए ट्रैक पर ट्रैन संचालन की अनुमती दी जा सकेगी।

ये कमियां पाई गई-

  •  स्टेशन से स्टेशन और स्टेशन से ट्रैन तक के संचार सही नहीं पाए गए है।.
  • कई सारी जगहों पर मोबाइल नेटवर्क नहीं हैं।
  • लाइन पर 25 पीएसआर शुरू किए गए, लेकिन यहां पीएसआर के बोर्ड ही उपलब्ध नहीं है।
  •  कुछ स्थानों पर सुरक्षा के लिए बाड़ बंदी कराने की जरुरत बताई गई।
  •  जावर स्टेशन पर एफओबी का काम अधूरा है और रास्ता भी उपलब्ध नहीं है।
  •  टनल 2 में भी कमियों पर विशेषज्ञों से संरचनात्मक चीजों की जरुरत बताई।
  • तीन गर्डरों में भिन्नता होने पर जांच क बाद ही सुरक्षा प्रमाणित करने को कहा।
  •  मोड़ पर कई सारी कमियां पाई गई।
  •  ब्रीज पर अलाइनमेंट सही नहीं था। हुक,बोल्ट,क्लिप गायब थे व स्लीपरों में कट था।
  •  पूलों की पिचिंग में 35 किलों के पत्थर के बजाय छोटे पत्थर लगे मिले।
  •  कुछ जगहों पर लटकी हुई चट्टानों को असुरक्षित माना।
  •  कई जगहों पर ट्रैक पर किए गए जोड़ में गलतियां पाई गई।
  •  बरसात से मिट्टी पर कटाव देखा गया।
  •  एमएफपी और एसबीसी में पर्याप्त दुरी नहीं थी।
  •  जावर और पडला स्टेशन में प्लेटफार्म की ऊंचाई भी नियमानुसार नहीं थी।
  •  सभी पूलों पर गार्ड फ्लेयर को पुरे सेक्शन में बदलने की जरुरत।
  •  सुरंगों में बिजली आपूर्ति लोकल फीडर से थी।
  •  सुरंगों में मोबाइल नेटवर्क नहीं था।
  •  आरओबी के दोनों और रास्ते दिखाए गए थे,लेकिन मौके पर नहीं थे।
  •  आरओबी की दीवार 1.5 मीटर के मुकाबले 1.3 मीटर ही मिली।
  •  मल्टीसेल आरसीसी बॉक्स के बजाय छोटे और सिंगल आरसीसी बोक्स दिए गए।
  •  जावर स्टेशन पर एफओबी का काम अधूरा पाया गया। यहां पानी की आपूर्ति भी नहीं थी।
  •  घाट स्थानों पर नींव की गहराई नियमानुसार नहीं थी।
  •  जावर स्टेशन पर एफओबी का काम अधूरा है और रास्ता भी उपलब्ध नहीं है।
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सोशल मीडिया डे – जानिए क्या है सोशल मीडिया

सोशल मीडिया एक प्रकार का ऐसा मीडिया संसार है, जहां सूचना का अपार महासागर है। यहाँ पर जो जानकारी चाहिए हो वो तुरंत एक बटन दबाने पर ही मिल जाती है। पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया के उपयोग में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है तथा इसने दुनिया भर के लाखों उपयोगकर्ताओं को एक साथ जोड़ लिया है। सोशल मीडिया अपनी सकारात्मक भूमिका अदा करता है, जिससे किसी भी व्यक्ति, समूह, देश, संस्थान आदि को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनितिक रूप से संपन्न व समृद्ध बना सकता है। सोशल मीडिया की वजह से कई सारे विकासात्मक कार्य हुए है, जिसने समाज को लाभ पहुंचाया है, समाज की आर्थिक स्थि‍ति को सुधारा है।

सोशल मीडिया ने आज आदमी के लाइफस्टाइल को पूरी तरह से चेंज कर दिया है। कोई भी छोटा या बड़ा काम हो वो पूरा होगा तो सिर्फ सोशल मीडिया की वजह से ही। शॉपिंग, कम्यूनिकेशन, ब्रैंड प्रमोशन और अपने दोस्तों और परिवार वालों से जुड़ने जैसी तमाम चीज़े सोशल मीडिया के जरिए पूरी हो जाती हैं। 1997 में पहला सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म, Sixdegrees लॉन्च किया गया था, जिसकी स्थापना एंड्रयू वेनरिच (Andrew Weinreich) ने की थी। इस वेबसाइट में यूजर्स के लिए अपने दोस्तों और परिवार वालों से कनेक्ट रहने के लिए लिस्टिंग, बुलेटिन बोर्ड और प्रोफाइल जैसे तमाम फीचर्स दिए गए थे।

सोशल मीडिया समाज में आज इसका बहुत ही बड़ा योगदान है। इसके साथ ही सोशल मीडिया समाज के सामाजिक विकास में भी सहयोग करता है। आज कल का जो दौर है, उसमें सोशल मीडिया एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जो व्यवसाय में मददगार होने के साथ-साथ कई सारी गतिविधयों में संचार का एक सशक्त माध्यम है, जिसका प्रभाव हर व्यक्ति पर पड़ता है। जिस प्रकार सोशल मीडिया ने आज समाज में अपनी पहचान और जो जरुरत बनाई है जिसके बिना तो जीवन की कल्पना करना बहुत ही मश्किल है, अब मुश्किल तो होगा ही, क्योंकि सिर्फ एक बटन दबाते ही तुरंत आपके पास सुचना का अथाह सागर जो मिल जाएगा। आप कुछ सेकेंड में पूरी दुनिया की खबरों से वाकिफ हो सकते हैं।

इन दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट से जुड़े रहना सबको पसंद है, भले वो बूढ़ा हो या बच्चा। सोशल मीडिया के कई सारे उपयोग है जो व्यवसाय से लेकर, उच्च शिक्षा, ऑनलाइन रोजगार, समाचार माध्यम, सामजिक मुद्दों पर जागरूकता पैदा करना और भी कई सारे ऐसी जगह है जहां सोशल मीडिया अपना वर्चस्व रखता है।

सोशल मीडिया के माध्यम से ही राजनितिक पार्टियों का चुनाव के लिए प्रचार हुआ है। किसी को न्याय दिलाने में मदद की है तो किसी जरुरतमंद तक जरुरत पहुंचाई है। सोशल मीडिया की वजह से कोई भी व्यक्ति लोकप्रिय हो सकता है, इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर जैसे कुछ प्रमुख प्लेटफॉर्म्स है जिस से अपना टैलेंट को बाहर दिखाया जा सकता है और मशहूर बना जा सकता है। साथ ही सोशल मीडिया लोगो तक विज्ञापन पहुंचाने का बहुत ही अच्छा जरिया है जिससे व्यापार में अच्छा मुनाफा पाया जा सकता है।

लेकिन जिस चीज़ के फायदे हैं, उसके कई नुकसान भी होते है। छोटे बच्चे लत के रूप में इसका अत्यधिक उपयोग कर रहे है, जिससे उन्हें अनिंद्रा व कमजोरी जैसी बीमारियां हो जाती है। ये बच्चों में खराब मानसिक विकास का भी कारण बनता जा रहा है। अगर देखा जाए तो सोशल मीडिया समाज में एक बहुत ही उपयोगी चीज है, जिसने हमारे कई सारे कामो को आसान बना दिया है। पर कुछ लोग है वो इसका उपयोग सही रूप में नहीं करते है जिस वजह से सोशल मीडिया एक अभिशाप के रूप में समाज में उभर कर आता है। एक कहावत भी है की ‘अति हर चीज की बुरी होती है’ उसी प्रकार सोशल मीडिया का भी ज्यादा या गलत उपयोग करने से आपको इसके नकारात्मक नतीजे ही मिलेंगे।

सोशल मीडिया आज समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण है। हर सिक्के के दो पहलु होते है कुछ सकारात्मक तो कुछ नकारात्मक उसी प्रकार सोशल मीडिया के कही सारे नुकसान भी है पर वो तो व्यक्ती व उनके विचार पर निर्भर करता है की वे सोशल मीडिया का किस प्रकार से उपयोग करते है। यदि सोशल मीडिया का सही तरीके से उपयोग किया जाए तो ये मानव जाति के लिए वरदान साबित हो सकता है।

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जानिए PM मोदी ने क्यों सराहा उदयपुर की इस बावड़ी को ?

पीएम नरेंद्र मोदी के ‘मन की बात’ (MannKiBaat) से चर्चा में आई उदयपुर शहर की ऐतिहासिक धरोहर, “सुरतान बावड़ी”  जो 305 साल पुरानी है। रविवार को पीएम ने इस धरोहर को बचाने वाले युवाओं की इस पहल को सराहा है। पीएम ने उदयपुर के युवाओं के प्रयासों को सराहते हुये ट्वीट करके यह कहा की आज दुनियाभर में इस बदलाव की चर्चा हो रही है। 

 दरअसल उदयपुर शहर के बेदला गांव में बरसों पुरानी एक बावड़ी है, जिसका निर्माण बरसों पहले बेदला गांव के “राव सुल्तान सिंह” ने 1717 में  करवाया था। जिसके बाद इसे “सुल्तान बावड़ी व सुरतान बावड़ी” के नाम से जाना जाने लगा। पुराने समय में इस बावड़ी का पानी लोगो के घर सप्लाई होता था, तब तक इस बावड़ी की दशा सही थी। परन्तु धीरे-धीरे इस बावड़ी में लोगो ने कचरा फेंकना शुरू कर दिया जिससे ये बावड़ी वीरान हो गई और इस ऐतिहासिक बावड़ी की दुर्दशा ख़राब हो गई जिसे कोई देखता भी नहीं है। बावड़ी में जगह -जगह पेड़ पौधे उगे हुए हुए थे, पत्थर टूट रहे थे, जूते, प्लास्टिक, बैग,जैसे कूड़ा कचरा भरा था और बावड़ी का पानी भी पूरी तरह पीला पड़ चूका था। 

बरसों पुरानी पड़ी इस बावड़ी को शहर के कुछ जागरूक युवाओं ने इसकी कायाकल्प को पूरी तरह बदल दिया है। आर्किटेक्ट सुनील लढा करीब 9 माह पहले यहां घूमने आए और उनकी नजर इस बावड़ी पर पड़ी। सुनील लढा और अमित गौरव की टीम ने इस टूटी पड़ी बेजान वीरान बावड़ी को विलुप्त होने से बचाया है। आर्किटेक्ट होने के नाते सुनील लढा ने इस बावडी को एक आर्किटेक्ट के नजरिये से ही देखा और इसके पीछे की खूबसूरती को जान लिया और इसका कायाकल्प करने की ठान ली। इसके बाद सुनील ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट के जरिए इसे आम जनता में फैलाया और साफ़ सफाई में सहभागिता निभाने की अपील की। उनकी ये अपील रंग लाई और लोगो ने इस काम में उनकी मदद भी की। लोगो की सहभागिता की वजह से ये बावड़ी साफ़ हो गई और उसी दशा में आ गई जो आज से बरसों पहले थी।  

सुल्तान से सुरताल तक 

सुल्तान बावड़ी की सफाई के इस मिशन का नाम ‘सुल्तान से सुरताल तक’ दिया है। युवाओं के कड़े परिश्रम और मेहनत के साथ न सिर्फ बावड़ियों की कायाकल्प हुई बल्कि इसे, संगीत के सुर और ताल से भी जोड़ दिया गया है। ASAP अकादमिक फाउंडेशन के जनसमूह से जुड़े सुनील लढा ने ये भी बताया की बावड़ी की इस सफाई से पहले कागज़ पर इसका चित्र बनाया। फिर टीम के साथ इसकी जीर्णोद्धार की रूपरेखा तय की। श्रमदान करके इसे साफ़ तो कर लिया गया लेकिन उसके बाद युवाओं को जोड़ने के लिए यहाँ कभी म्यूजिक तो कभी पेंटिंग्स के इवेंट करने लगे। जल स्त्रोतों के प्रति, धर्म से जुड़ाव और बावड़ी को पवित्र रखने के लिए हरिद्वार से गंगा जल मंगवा कर ग्रामीणों के हाथ से ही इसमें प्रवाहित कराया गया। युवाओं को सुर और तान समेत अन्य एक्टिविटी से भी जोड़ा गया।

जागरूक लोगों का मकसद इसे जीवित करना था

ऐसे में आज उसकी स्थिति पहले की तुलना में काफी बेहतर नजर आती है। प्रधानमंत्री ने कहा कि इस सफल प्रयास की सबसे खास बात यह है कि इसकी चर्चा हर तरफ है, इसे विदेश से भी लोग देखने के लिए आने लगे हैं। मोदी जी ने ये भी कहा की आधुनिकता के इस दौर में हम धरोहरों और विरासतों को नहीं सहज पा रहे है। विलुप्त होती बावड़ियां इसका उदहारण है। देश में शायद ही ऐसा कोई गाँव या शहर होगा, जहां बावड़ियां न हो। आज इनकी स्थिति बदतर है। सरकारों को भी इन्हें सहेजने के प्रयासों में सफलता नहीं मिली। पीएम ने ये भी कहा की उदयपुर में बात सिर्फ सुरतान बावड़ी को साफ़ करने तक सिमित नहीं थी, जागरूक लोगों का मकसद इसे जीवित करना था।   

सुरतान बावड़ी पर तो एक शख्स की निगाह पड़ी जिस वजह से उसे उसकी वास्तविक हालत में लाया गया। पर न जाने शहर में ऐसी कितनी सारी ऐतिहासिक धरोहरे है, जिनकी दुर्दशा हो रही है जो जीर्ण-शीर्ण हालत में पड़ी है। जिस पर न तो आज दिन तक किसी की नज़र पड़ी और न ही इसके बारे में किसी को कुछ पता है और अगर नजर भी गई है तो किसी ने भी उस पर एक्शन नहीं लिया। उन युवाओं की तरह हम सब को भी हमारी ऐतिहासिक धरोहर के साथ-साथ शहर को स्वच्छ रखने लिए जागरूक होना ही होगा। उनके एक कदम ने आज उदयपुर का नाम पूरे भारत में रोशन किया है, तो शहर का एक-एक व्यक्ति अगर जागरूक होगा और ऐसे कदम उठाएगा तो हमारा शहर उदयपुर में स्वच्छता के मामले में नंबर वन बन सकता है। अगर जरुरत है तो हर इंसान को जागरूक होने की, आज तो सुरतान बावड़ी सामने आई है पता नहीं अब न जाने और भी कितनी सारी ऐसी ऐतिहासिक धरोहर है, जो सामने आ जाए।

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आखिर ये कुरीति थमने का नाम क्यों नहीं लेती ?

हिन्दू संस्कृति में एक व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक सोलह तरह के पर्व उत्सव होते है जिन्हें संस्कारों का नाम दिया जाता हैं। जिनमें विवाह एक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया हैं, प्रत्येक दौर में विवाह को दो पवित्र भावनाओं के बंधन के रूप में स्वीकृति दी गई जो अगले सात जन्मों तक एक दूसरे का साथ निभाए। बदलते वक्त के साथ विवाह संस्कार में कई तरह की बुराइयां सम्मिलित हो गई और इन कुरीतियों के चलते विवाह व्यवस्था विकृति का शिकार हो गई। जिसका एक स्वरूप हम बाल विवाह अथवा अनमेल विवाह के रूप में देखते है। यह कुरीति भारतीय समाज के लिए अभिशाप साबित हो रहा हैं।

बाल विवाह की कुप्रथा-
ऐसा नहीं की यह कुप्रथा का प्रचलन भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पहले से है, जब अंग्रेजी शासको ने भारत को बंधी बनाया था तब विदेशी शासक बेटियों को भोग की वस्तुए समझकर उन्हें ले जाते थे ऐसे में गरीब निम्न वर्गीय परिवार ने बेटियों का बचपन में विवाह करवाना शुरू कर दिया था और ऐसे दौर में यह कुप्रथा का प्रचलन शुरू हो गया। मध्यकाल में एक दौर ऐसा भी आया जब बेटी के जन्म को अशुभ माना जाने लगा। शिक्षा के अभाव तथा स्वतंत्रता न होने के कारण लड़कियाँ इसका विरोध भी नहीं कर पाती थी। छोटी उम्र में विवाह हो जाने के कारण दहेज भी कम देना पड़ता था। इस कारण से मध्यम तथा निम्न वर्गीय परिवारों में बाल विवाह की प्रथा ने अपनी जड़े गहरी जमा ली थोड़ी सी सहूलियत के लिए शुरू हुई ये प्रथाएं आज बेटी के जीवन का अभिशाप बन गई हैं। इस गलत परम्परा को निरंतर आगे बढ़ाया जा रहा हैं। बेटी को कम उम्र में ही ब्याह दिया जाता है जिससे कई तरह कि समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं। कम उम्र में विवाह से बालिका के शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य में बाधक तो हैं ही साथ ही जल्दी संतानोत्पत्ति होने से जनसंख्या में भी असीमित वृद्धि हो रही हैं। इन सब कारणों से बाल विवाह एक सभ्य समाज के लिए अभिशाप ही हैं।

बाल विवाह को रोकने के लिए सरकार कितने कदम उठा रही है, कितने जागरूकता अभियान और योजनाएं आदि चला रही है लेकिन यह कुरीति आखिर थमने का नाम कहा लेती है। पारिवार के दबाव में भी कुछ लड़कियों के बाल विवाह हो जाते है, आधे लोग अपनी गरीबी की वजह से बाल विवाह करवा देते है और कुछ लोग दहेज़ कम देना पड़े इस वजह से।

इसी तरह अपने प्रदेश उदयपुर में भी यह प्रथा अभी तक बरकरार है, प्रदेश में हर चौथी महिला का बाल विवाह हो जाता है। यह खुलासा राष्ट्रीय स्वास्थय सर्वेक्षण (एनएचएफएस -5) की रिपोर्ट साल 2019-2021 में हुआ। रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान का देश में बाल विवाह का 7वां नंबर है। कुल 25.4 प्रतिशत महिलाओं के बाल विवाह हुए हैं। प्रदेश में 2018 से 2021 के दौरान कुल 1216 बाल विवाह हुए है सबसे ज्यादा मामला अलवर, जोधपुर और उदयपुर में आए है।

उदयपुर में 64 बाल विवाह हो चुके है। ये मामला शहरी क्षेत्रों में 15.1 प्रतिशत और ग्रामीण इलाके में 28.3 प्रतिशत तक रहा। इस से पहले की रिपोर्ट साल 2015-2016 में महिला बाल विवाह में यह मामला 35.4% रहा। हाल ही जारी रिपोर्ट में संभाग के चित्तौडगढ़ में 42.6 % सबसे ज्यादा बाल विवाह के मामले सामने आए है, भीलवाड़ा में 41.8%, झालावर में 37.8% ,उदयपुर में 18.2%, गंगानगर में 13.6%, कोटा में 13.2%, और पाली में 11.8% रहा।

बाल विवाह में आई गिरावट –
सरकार ने बाल विवाह के खिलाफ कई अभियान बनाए है, बाल संरक्षण की अध्यक्ष संगीत बेनीवाल बताती है कि बाल विवाह के मामले रोकने के लिए नए -नए कार्यक्रम पर काम हो रहा है। ” चुप्पी तोड़ो, हमसे बोलो”, बाल विवाह अपराध है और बाल विवाह को न जैसे कार्यक्रम के जरिए एनजीओ स्वयंसेवी संगठन के माध्यम से इसे रोकने में लगे हुए है ग्रामीण क्षेत्रो में लगातार जागरूकता अभियान चलाए जा रहे है इस से बाल विवाह के मामले में गिरावट आई है, बच्चे अब खुद ही सतर्कता रखने लगे है और ऐसी स्थिति में वे स्वयं ही थाने चले जाते है और पुलिस प्रशासन को सुचना देते है या कॉल कर देते है।

अब बच्चे भी हो रहे है जागरूक –
पिछले साल नवंबर में एक बच्ची का बाल विवाह होना था उसने हिम्मत करके इसकी सुचना दी थी तब अध्यक्ष संगीता बेनीवाल ने लड़की के परिजनों को समझाया भी था पर उसके परिजन के नहीं मानने पर बच्ची को बालिका गृह में रखा गया था।

बाल विवाह के मामलों में कमी –
देश में लड़कियों की शादी की सही उम्र 18 वर्ष है और लड़के की 21वर्ष। पिछले साल के मुताबिक अभी की रिपोर्ट दोनों का अगर आंकलन किया जाए तो पिछली रिपोर्ट से इस बार 10% कमी आई है। पिछली सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक़ महिला बाल विवाह 35.4 % रहा और अब यह आंकड़ा 25.4% फीसदी रहा।

कम उम्र में बच्चों की शादी कर देने से उनके स्वास्थ्य, मानसिक विकास और खुशहाल जीवन पर असर पड़ता है। यह उम्र उनके खेलने कूदने की होती है, इस तरह उनकी जल्दी शादी करवा कर शादी के इस बंधनो में बाँध देना कहा तक सही है ? पढ़ने लिखने की उम्र में उन पर घर परिवार के काम का बोझ डाल देना कहां तक सही है ? सपनो के पंख को खुलने से पहले ही उन्हें इस प्रकार तोड़ देना कहा तक उचित है ? क्या उनसे इस प्रकार उनका बचपन छीन लेना कहा तक सही है ?

कितने ग्रामीण इलाको में ऐसी लडकियां है जो होशियार है, जीवन में बहुत कुछ बड़ा हासिल कर सकती है पर परिवार की नासमझी की वजह से और ग्रामीण इलाका जहां लोग इतने शिक्षित नहीं होते है ऐसे में उनके सपनो को उनके अंदर तक ही सीमित रख दिया जाता है और उनकी प्रतिभा को बहार दिखाने पर उन्हे गलत साबित कर दिया जाता है। किताबे थमाने की उम्र में वरमाला थमा दी जाती है। बस्तो के बोझ को उठाने की जगह घर परिवार की जिम्मेदारियों का बोझ उठाने को दे दिया जाता है। अशिक्षित समाज में लड़कियों को पढ़ाना आज भी एक प्रश्न हैं।

बाल विवाह की समस्या को रोकने के उपाय-
समय समय पर समाज सुधारकों ने इस तरह की कुप्रथाओं को मिटाने के प्रयास किये हैं। हमारी संसद ने भी बाल विवाह निषेध के लिए कठोर कानून बनाए हैं और लड़के तथा लड़की के विवाह की न्यूनतम आयु निर्धारित की हैं । विवाह की न्यूनतम आयु से पूर्व होने वाले विवाह को बाल विवाह माना जाता है तथा यह गैर कानूनी अपराध की श्रेणी में गिना जाता हैं। बाल विवाह की शिकायत प्राप्त होने पर दोनों पक्षकारों को कड़ी सजा तथा जुर्माने का प्रावधान होने के बावजूद हमारे देश में बाल विवाह आज भी हो रहे हैं।

ग्रामीण इलाको में तो नासमझी, अशिक्षित, शिक्षा का अभाव, कुप्रथाए जो चली आ रही है इस वजह से मान सकते है की बाल विवाह हो रहे है पर यह शहरी इलाको में भी ऐसे हाल क्योँ है। बाल विवाह हमारे आधुनिक समाज में गहरे तक व्याप्त ऐसी कुप्रथा है जिसका दुष्परिणाम लड़के तथा लड़की दोनों को भुगतना पड़ता हैं। इस प्रथा के चलते समाज में कई बुराइयाँ उत्पन्न हो चुकी हैं। आज के समय में बाल विवाह समस्या का निवारण बेहद जरुरी हो गया हैं इसके बिना बेटियों को इस अभिशाप से मुक्त नहीं किया जा सकता हैं।

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जानिए उदयपुर की ऐसी जनजाति जिसने हल्दी घाटी युद्ध में दिया था अपना महत्वपूर्ण योगदान

भील यह राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजाती हैं। भील शब्द की उत्पति “बिलू” शब्द से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘कमान’। यह जनजाति तीर कमान चलाने में काफी निपुण होती हैं। मुख्यतः यह जनजाति उदयपुर के साथ-साथ बांसवाड़ा, डूंगरपुर, चित्तौड़गढ़ और प्रतापगढ़ में रहती है।। ये मेवाड़ी, भील तथा वागड़ी भाषा का प्रयोग करते हैं।

भीलों की जीवनशैली बहुत ही अलग ढंग की होती हैं, यह उबड़-खाबड़ पहाड़ी क्षेत्र तथा वन में रहते हैं। इनके मकानों को टापरा, कू, फलां और पाल भी कहते हैं।

पौराणिक कथाओं के अनुसार भील जनजाति की उत्पत्ति भगवान शिव के पुत्र निषाद द्वारा मानी जाती है। कथा के अनुसार एक बार भगवान शिव जब ध्यान मुद्रा में बैठे हुए थे, तब निषाद ने अपने पिता के प्रिय बैल नंदी को मार दिया था तब दंडस्वरूप भगवान शिव ने उन्हें पर्वतीय क्षेत्र पर निर्वासित कर दिया था, वहां से उनके वंशज भील कहलाये। इसके साथ यह भी कहा जाता है की रामायण के रचयिता वाल्मीकि भी भील पुत्र थे। महाभारत में वर्णित गुरु द्रोणाचार्य के भक्त एकलव्य भी भील जनजाति के थे। रामायण में शबरी जिसने राम को अपने झूठे बेर खिलाए थे वह शबरी भी भील जाति से ही थी। इस जाति की कर्त्तव्यनिष्ठा, प्रेम और निश्छल व्यवहार के उदाहरण प्रसिद्ध है। 

हल्दी घाटी युद्ध के समय महाराणा प्रताप की सेना में राणा पुंजा और उनकी भील सेना का महत्वपूर्ण योगदान था। इसी कारण से मेवाड़ राजचिन्हों में एक तरफ महाराणा प्रताप तो दूसरी तरफ राणा पुंजा भील का नाम भी आता है। महाराणा प्रताप को भील लोगो द्वारा पुत्र भी कहा जाता है इसके पीछे भी एक कहानी है, दरअसल मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा बार-बार आक्रमण किए जाने पर महाराणा प्रताप के पिता महाराणा उदय सिंह समझ चुके थे कि, चित्तौड़गढ़ दुर्ग अब सुरक्षित नहीं रहा इसलिए उन्होंने सुरक्षा के लिए पहाड़ियों के बीच एक नया शहर बसाया। इसमें पहले से ही वहां रह रहे भील बस्तियों के निवासियों ने महाराणा उदय सिंह का यथोचित सहयोग किया। इसी दौरान भीलों के बच्चे व महाराणा प्रताप एक साथ रहते थे। महाराणा प्रताप ने भीलो को इतना प्रेम, स्नेह व अपनत्व दिया था कि भील उन्हें “कीका” कहने लगे जिसका सामन्य अर्थ पुत्र होता है। भीलों के साथ महाराणा प्रताप के संबंध अंत तक बने रहे। इसी वजह से सीमित संसाधनों के होते हुए भी भीलों के सहयोग से महाराणा प्रताप ने मुस्लिमों के विरुद्ध अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की। भीलों के साथ महाराणा प्रताप के संबंध मेवाड़ राज्य के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध हुए। महाराणा प्रताप भीलों के साथ राजा- प्रजा का नहीं बल्कि बंधुत्व का संबंध रखते थे। भीलों द्वारा किये गये सहयोग एवं वीरतापूर्ण कार्यो के सम्मान स्वरूप उन्होंने भीलों को मेवाड़ के राज चिह्न में जगह दी।

आइये जानते है और भी बहुत कुछ भील जनजाति के बारे में –

वस्त्र – भील पुरुष सामान्य तंग धोती पहनते है जिसे भील भाषा में ठेपाडु कहते है और सर पर साफा पहनते है जिसे पोत्या और फाडिंयु कहते है। भील स्त्रियों की वेशभूषा आम तौर पर वे लुगडी, घाघरा और चौली पहनती है। 

नृत्य– गैर नृत्य, घूमर,गवरी नृत्य इस जनजाति के प्रसिद्ध नृत्य हैं। 

मेले– गौतमेश्वर मेला, बेणेश्वर का मेला, ऋषभदेव का मेला 

 प्रमुख प्रथाए-

  • दापा प्रथा – इस प्रथा के अनुसार विवाह के समय लड़के के पिता द्वारा लड़की के पिता को कन्या का  मूल्य चुकाना होता है।  
  • गोदना प्रथाइस प्रथा के अनुसार भील पुरुष और महिलाएं अपने चेहरे व शरीर पर गोदना गुदवाते हैं जिसमे महिलाएं अपने आँखों के ऊपर सर पर दो आड़ी लकीरे गुदवाती हैं जो उनके भील होने का प्रतिक माना जाता हैं। 
  • गोल गोधेड़ा प्रथाभील जनजाति में एक प्रथा है जिसे गोल गोधेड़ा प्रथा कहते है, इस प्रथा के अनुसार यदि कोई भील युवक अपनी वीरता और शौर्य को प्रमाणित कर देता है तो वह युवक अपनी पसंद की लड़की से शादी कर सकता है। 

भील जनजाति में लोकगीतों, लोकनृत्य, लोकनाट्य का काफी प्रचलन है – इसमें से एक गवरी नृत्य जो उदयपुर संभाग में सावन-भादो के समय किया जाने वाला एक धार्मिक नृत्य है, जो केवल पुरुषों द्वारा किया जाता है। इस नृत्य को राइ नृत्य भी कहते है क्योंकि इसमें नृत्य के साथ मादल व थाली भी साथ में बजाई जाती है। 

भील लोग देवी-देवताओं का बहुत मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं। ये लोग साहसी, वचन के पक्के, निडर और स्वामिभक्त होते हैं। आर्थिक दृष्टि से देखा जाए तो भील जनजाति अत्यंत निर्धन होते हैआर्थिक व सामजिक रूप में यह जनजाति समाज का बहुत ही पिछड़ा वर्ग है पर फिर भी इनका इतिहास अति रोचक साहसी एवं प्राकृतिक वातावरण से पूर्ण रहा है। इतिहास के पन्नो पर अगर देखो तो भील समाज की सम्पन्नता शूरवीरता एवं आर्थिक सम्पनता के बखान मिलते है।

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उदयपुर में 5800 जरुरतमंदो को मिलेगा रोजगार

उदयपुर में इंदिरा गाँधी शहरी रोजगार गारंटी योजना के तहत 5800 जरूरतमंद लोगों को रोजगार मिलेगा। इस गारंटी के अंतर्गत 100 दिन का कार्य दिया जाएगा जिसमे 579150 मानव दिवस स्वीकृत किए गए है। प्रति व्यक्ति को 259 रूपए का प्रतिदिन भुगतान किया जाएगा। योजना में आवेदन करने के लिए जॉब कार्ड, ई- मित्र पर या स्वयं भी पोर्टल पर अपलोड कर सकते है एवं नगर निगम जा कर भी आवेदन कर सकते है। इसके लिए वार्ड पार्षदों से अपील भी की गई है की जो भी बेरोजगार लोग है उन्हें इस योजना से जुड़ने के लिए लिए प्रेरित करे।

स्वास्थ्य समिति अध्यक्ष पारस सिंघवी ने बताया की इस योजना के अंतर्गत 259 मजदूरी तय की गई है। शहरी क्षेत्र में निवास कर रहे है प्रत्येक परिवार के 18 से 60 वर्ष के सदस्य इस योजना के अंतर्गत आ सकेंगे। रोजगार के अंतर्गत तालाब बावड़ी से मिट्टी निकालने का कार्य, पानी वातावरण संरक्षण से जुडी प्रक्रियाए, पौधरोपण नर्सरी का काम एवं अन्य शहरी साफ़ सफाई के कार्य करवाए जाएंगे। महापौर गोविन्द सिंह टांक के निर्देश पर नगर निगम आयुक्त हिम्मत सिंह बारहठ ने जिला परियोजना अधिकारी शैल सिंह को पूरी तैयारी को लेकर निर्देशित किया है।