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पोलियों, सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित लोगों की पिछले 30 साल से मदद करता नारायण सेवा संस्थान

उदयपुर में शायद ही कोई ऐसा हो जिसनें, नारायण सेवा संस्थान का नाम न सुना हो। अब तो न सिर्फ् उदयपुर और राजस्थान ही नहीं देस-परदेस के लोगो के लिए भी यह एक जाना-पहचाना नाम बन चूका है। इसका उदहारण, हमें भी वहीं जाकर मिला जब हमनें देखा कि राजस्थान के अलावा उत्तर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ के साथ साथ गुजरात, महाराष्ट्र आदि राज्यों से लोग अपना या अपने बच्चों का इलाज करवाने के लिए यहाँ आए हुए हैं।narayan seva sansthan udaipur

यह वो लोग थे जो उम्मीद खो चुके थे कि अब कुछ नहीं हो सकता या वो भी जो पोलियो-सेरेब्रल पाल्सी के इलाज में लगने वाले खर्च का वहन नहीं कर सकते थे। टीवी, विज्ञापन और माउथ पब्लिसिटी (जो यहाँ इलाज करवा चुके हैं, उनके द्वारा बताएं जाने पर) ही इन सभी को पता लगा था कि यहाँ पर निःशुल्क इलाज किया जाता हैं। दिलचस्प बात ये भी हैं कि दूर-दराज से आने वाले लोगों को NSS(नारायण सेवा संस्थान) वाले रेलवे स्टेशन/बस स्टेशन तक लेने और छोड़ने भी जाते हैं ताकि उन्हें किसी तरह की तकलीफ़ ना हो और ये सबकुछ निःशुल्क सेवा-भाव से किया गया कार्य होता है।narayan seva sansthan udaipur

नारायण सेवा संस्थान, उदयपुर में करीब 730 के आसपास एम्प्लोयी हैं जो खुद को एम्प्लोयी मानने से मना करते हैं। इन्हें ‘साधक’ की उपाधि दी हुई है और इलाज करवाने आए सभी लोग भी साधक कह कर ही पुकारते हैं।

वहां के एक साधक से बात करने पर एक अचंभित करने वाले आंकड़ा पता चला। यहाँ आने वाले मरीजों की अपडेटेड वेटिंग लिस्ट 14,000 है जो कभी 30,000 के करीब हुआ करती थी। इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कितने और ज़रूरतमंद अपने नंबर का इन्तजार कर रहे हैं।

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Sewing Machines for people

प्रशांत अग्रवाल जो कि नारायण सेवा संस्थान के जनक कैलाश ‘मानव’ अग्रवाल के बेटे हैं, उनसे हुई बातचीत में उन्होंने नारायण सेवा संस्थान के बनने से लेकर अब तक के कई किस्से साझा किए। उनमें से कुछ हम यहाँ आपके साथ शेयर कर रहे है:-

  • जब पिताजी ने इसकी शुरुआत की थी तब इसका कोई नामकरण नहीं हुआ था। वो बस मदद करना चाहते थे। लेकिन कुछ साल बाद किसी के सुझाव पर नाम रखने की सोची। तब इसका नाम ‘दरिद्र नारायण सेवा’ रखा गया। लेकिन माँ के कहने पर नाम से ‘दरिद्र’ शब्द हटा दिया गया।
  • एक और किस्सा वो ये बताते हैं कि शुरू में किसी ने पिताजी के इस काम को तवज्जो नहीं दी, उल्टा सभी इनका विरोध ही करते रहे। जिस कॉलोनी हम रहा करते थे तब सामान से लदा ट्रक आया जिसकी वजह से कॉलोनी में लगा एक पत्थर टूट गया। इस पर कॉलोनीवासियों ने विरोध करना शुरू कर दिया और इस काम को बंद करने को कहा। बाद में पिताजी के ये कहने पर कि ये एक नेक काम है और वो पत्थर में फिर से लगवा दूंगा तब जाकर वो लोग शांत हुए।
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    Mobile Workshop for patients and their relatives 

     

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Computer Lab for learning Computer
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Art and Craft by Children
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Lab for testing and medicines
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Physiotherapy Room
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137 साल पुराना गुलाब बाग़, जहाँ शहर के बड़े-बुज़ुर्ग आज भी अपना बचपन तलाशते हैं।

सुबह के 5:00 बजे होंगे। शहर के उपनगरीय क्षेत्रों के घरों में बजते अलार्म, सुबह की गहरी-मीठी नींद में सोते लोगों के हाथों से बंद कर दिए जा रहे थे। कुछ इक्के-दुक्कों को छोड़ दिया जाए तो हिरन-मगरी अभी भी सो ही रहा था। लेकिन यहाँ से 5 किलोमीटर दूर शहर के बीचों-बीच क़रीब 100 एकड़ में फैला लगभग 137 वर्ष बूढ़ा बाग़ अपने अन्दर लगे बड़े-बड़े पेड़ों में से एक अलग ही ज़िन्दगी को झाँक रहा था, जो उदयपुर शहर के बाहर बसी जिंदगियों से बहुत अलग थी। मैं वहाँ 15 मिनिट में पहुँच गया। घड़ी में 5:15 बज रहे होंगे लेकिन मैं तब भी लेट था।

gulab bagh, udaipur
Photo courtesy: vineet19850

वहाँ आए एक-आध लोगों से बात करने पर पता चला कि उनकी सुबह तो कब की हो चुकी है। कोई अकेला गुलाब बाग़ के चक्कर लगा रहा था, कोई किसी अपने का हाथ पकड़ क़दमों की ताल को बांधे हुए था, तो कोई ग्रुप में बैठे अपने स्कूल/कॉलेज के दिनों को याद कर गुलाब बाग़ में अपने बचपन को तलाश रहा था।

gulab bagh, udaipur
Photo courtesy: jeenaj

अगर आपको असली उदयपुर देखना है तो यहाँ आइए। मुझे पूरी उम्मीद है यहाँ दिखने वाले दृश्यों को आप शायद ही कभी भुला पाएंगे। इन बूढ़े पेड़ों और लुप्त होते गुलाबों, जिनकी वजह से इसका नाम गुलाब बाग़ पड़ा था, उदयपुर की पहचान बचाने की पूरी कोशिश कर रहा है। आम और जामुनों के पेड़ों के नीचें लगी बेंचों पर बुज़ुर्ग अपनी महफ़िल जमाते हुए नज़र आ जाते हैं, इन्टरनेट की दुनिया से बिलकुल एक अलग दुनिया की बातें करते। वह दुनिया जिसे हम यंग्सटर्स कभी की भुला चुकें है।

gulab bagh, udaipur
Photo courtesy: divyesh jain

हालाँकि कुछ नयी जिंदगियां यहाँ नज़र ज़रूर आती हैं लेकिन वो भी दौड़ती हुई, बस। हम सभी दौड़ रहे हैं, न जाने किस चीज़ की तलाश में? अगर कोई रुकता भी तो बस हाफ़ने भर के लिए और एक सांस भर फिर से दौड़ पड़ता है।

गुलाब बाग़ वहीँ रहे, ऐसी उम्मीद करता हूँ। वहाँ चलती महफ़िलें कभी लुप्त ना हो, जैसे गुलाब बाग़ से गुलाब लुप्त हो चुकें है। अब वो सिर्फ् एक बाग़ बनता जा रहा है।gulab bagh, udaipur

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मिसाल: घर से मिलने वाली पॉकेट मनी से ज़रूरतमंद बच्चों की मदद करता है ये कॉलेज ग्रुप ‘सिद्धम्’

‘सिद्धम्’ – एक ऐसा ग्रुप जो हर माह अपनी पॉकेट मनी से ज़रूरतमंद बच्चों के लिए कॉपी, किताब तथा अन्य खाने की सामग्री खरीदते हैं और उसे उन बच्चों में बाँट देते है।

educate india
photo courtesy: world bank

सिद्धम् मिलकर बना है, हर्षवर्धन सिंह चौहान, प्रियांश सिंह, सिद्धार्थ सोनी, अभिजीत सिंह, नरेन्द्र सिंह नरुका, गौरव वर्मा, प्रद्युम्न सिंह और गजेन्द्र सिंह, जैसे लोगो से। चूँकि ये सभी अभी कॉलेज में ही है तो शायद ही किसी की उम्र 22-23 बरस से ऊपर हो! एक और ख़ास बात ये भी है कि ये सभी छात्र राजनीति में भी सक्रिय हैं। इतनी कम उम्र में समाज के उन वर्गों के लिए कुछ कर गुजरने का ज़िम्मा उठाना जो अपनी ज़रूरतों की भरपाई खुद नहीं कर पाते है, अपने आप में ही काबिल-ए-तारीफ़ काम है। ऊपर से छात्र राजनीति में सक्रिय होना भी उन लोगों पर कटाक्ष है, जो हाल ही में छात्रों को राजनीति से दूर रहने की वकालात कर रहे थे।

कैसे काम करते है ये? :- ये सभी मिलकर हर महीने 500-500 रुपये जमा करते है, जो कि अनिवार्य है। उसके बाद ये सभी मेंबर्स अपनी इच्छा से इन 500 रुपयों के आलावा और रुपयें भी डाल सकते हैं। इन रुपयों से ये लोग ग़रीब-बेसहारा, सरकारी स्कूलों, कच्ची बस्ती के बच्चों के साथ-साथ अन्य ज़रुरतमंदों बच्चों में स्टेश्नरी, जूते, खाने की चीज़ें खरीद कर बाँटी जाती है। इस काम को ये पिछले एक साल से कर रहे है।

बच्चों को पढ़ते भी है :- सिद्धम् टीम के मेंबर्स खेल के माध्यम से इन बच्चों को पढ़ते भी है। ढीकली स्कूल से इस काम की शुरुआत की थी। इस दौरान न सिर्फ़ पढाया जाता है बल्कि साफ़ रहना और खेल खेलने के महत्त्व को भी बताते है। इस नए शुरू किए गए प्रोजेक्ट को अब और स्कूलों तक ले जाने की कवायद की जा रही है।

indian children getting education
photo courtesy: new internationalist

क्राउड फंडिंग भी करती है टीम :- सिद्धम्, पॉकेट मनी के अलावा क्राउड फंडिंग का भी सहारा लेती है। इसमें ये लोग शहर के लोगों से अपील करते हैं और उनसे इच्छानुसार राशि लेते हैं। कम से कम ग्यारह रुपयों का डोनेशन आप कर सकते हैं। अच्छी बात ये है कि शहर के कई लोग अब जागरूकता दिखा रहे है और सुखाडिया विश्वविद्यालय में पढने वाले इनके दोस्त तो खैर इनके साथ हैं ही। 🙂

News Courtesy: Rajasthan Patrika

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शहर में लगने वाले इलेक्ट्रिक चार्ज प्लग बोर्ड से फ़ोन नहीं, ई-रिक्शा चार्ज होंगे।

हमारा नगर निगम हम लोगों के लिए कितना कुछ सोचता है। कुछ महीनों पहले वाल सिटी में बढ़ते प्रदुषण और भीड़-भाड़ को कम करने के लिए कुछ स्थानों पर अन्य राज्यों की कारों का प्रवेश निषेध कर दिया था। उसके बाद बीच में ये भी प्रयोग किया कि ‘मुंह काला कर दे ऐसा धुंआ छोड़ने वाले ऑटो’ की जगह ई-रिक्शा को चलाया गया। हालाँकि दोनों ही प्रयोग बुरी तरह से नाकाम साबित हुए, और इस कदर नाकाम कि अन्य राज्यों से आने वाली कारों के प्रवेश को निषेध करने वाले प्रयोग को तो बोरी में बंद करना पड़ा। दूसरा प्रयोग भी एक तरह से फ़ैल ही साबित हुआ। शुरू में 80 ई-रिक्शा चलने तो लगे लेकिन अब उनकी संख्या घटकर मात्र 40 रह गई है। बिल्कुल आधी।

नगर निगम द्वारा अब फिर से कोशिश की जा रही है कि ई-रिक्शा की संख्या में बढ़ोतरी की जाए। ताकि प्रदुषण के लेवल में कमी लाई जा सके। इसके लिए निगम न सिर्फ ई-रिक्शा की संख्या में इजाफ़ा करने की सोच रहा है इसके साथ ही शहर में कुछ स्थान ऐसे चुन रहा है जहाँ इन ई-रिक्शा को चार्ज भी किया जा सके। इनके लिए जगह-जगह इलेक्ट्रिक चार्ज प्लग बोर्ड लगाए जाएंगे। ऐसा दिल्ली और कोलकाता में पहले ही किया जा चूका है।

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Source: IndiaToday

अच्छी बात है कि निगम हम शहरवासीयों के लिए इतना सोच रहा है और देखा जाए तो सोचना भी चाहिए। लेकिन अब बात ये है कि क्या हम इस डेवलपमेंट के लिए तैयार हैं? और उससे भी पहले क्या हम इस डेवलपमेंट के हक़दार हैं? बात हर्ट होने वाली है लेकिन सच भी है। जब 80 ई-रिक्शा शहर में चल रहे थे तब हम में से (मैं, आप, हम सभी) कितने लोगों ने इधर-उधर जाने के लिए इन ई-रिक्शों का उपयोग किया? सच कहा जाए तो न के बराबर। हमारा इन ई-रिक्शा में नहीं बैठना भी इनकी संख्या घटने का एक कारण रहा है।

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Source: Hindustan Times

कैसे?

वो ऐसे… जो 40 ई-रिक्शा बंद हुए हैं उनमें से कई इस वजह से बंद हुए है क्योंकि वो समय से अपना लोन नहीं चूका पाए, और लोन क्यों नहीं चूका पाए क्योंकि उन रिक्शा वालों की उतनी कमाई हुई नहीं जितनी वो लोग उम्मीद लगाए बैठे थे। इस वजह से बैंक ने उनके ई-रिक्शा वापस ले लिए और कुछ ने बेच भी दिए।

इसलिए हमें ये देखना और सोचना होगा कि हम अपनी तरफ से शहर के लिए कितना कुछ कर पाते है! नगर निगम तो हर दिन नयी-नयी योजनाएं लाता ही रहेगा लेकिन हम खुद किस तरह से निगम की मदद कर पाएँगे या यूँ कहे अपने खुद के शहर की हवा-पानी को साफ़ रखने में अपना योगदान दे सकते है।

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डीज़ल/CNG इंजन ऑटो या इलेक्ट्रिक ऑटो
ख़ुद तय करें!
Source: The Financial Express

बात है तो सोचने वाली…बाकि कमेंट बॉक्स में आप लोगों के विचारों का स्वागत है।

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History and Culture

राजस्थान का ‘जालियाँवाला बाग़’ हत्याकांड, जब 1500 बेक़सूर लोग मारे गए।

13 अप्रैल, 1919 जगह जालियाँवाला बाग़, अमृतसर, पंजाब. इस घटना को शायद ही कोई भारतीय होगा जो नहीं जानता होगा. यह घटना भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की किताब का बहुत बड़ा अध्याय रही है. कई आम लोग इस घटना से प्रभावित हुए और स्वतंत्रता संग्राम में उतरने का फैसला किया. ब्रिटिश सरकार की माने तो इस हत्याकांड में 379 लोग मारे गए और 1200 से अधिक घायल हुए. लेकिन तत्कालीन अख़बारों [ तब फेक न्यूज़ नहीं हुआ करती थी ] के अनुसार मृत्यु का आंकड़ा 1000 के आसपास तक था.

ऐसा ही कुछ दर्दनाक और वीभत्स हत्याकांड दक्षिणी राजस्थान में भी हुआ था. जो इतिहास के पन्नों में दूसरी घटनाओं के तले छुप गया. यह हत्याकांड जालियाँवाला बाग़ में हुए हादसे से भी बड़ा था.

मानगढ़ हत्याकांड
मानगढ़ हत्याकांड, 1913

हम बात कर रहे है ‘मानगढ़ धाम हत्याकांड’ जालियाँवाला बाग़ हत्याकांड से 6 साल पहले हुआ. तारीख़ थी 17 नवम्बर, 1913. मानगढ़ एक पहाड़ी का नाम है जहाँ यह घटना घटी थी.

घटना का जन्म लेना :-

गोविन्द गुरु
गोविन्द गुरु

गोविन्द गुरु, एक सामाजिक कार्यकर्त्ता थे तथा आदिवासियों में अलख जगाने का काम करते थे. उन्होंने एक 1890 में इक आन्दोलन शुरू किया. जिसका उद्देश्य था आदिवासी-भील कम्युनिटी को शाकाहार के प्रति जागरूक करना और इस आदिवासियों में फैले नशे की लत को दूर करना था. इस आन्दोलन का नाम दिया गया ‘भगत आन्दोलन’. इस दौरान भगत आन्दोलन को मजबूती प्रदान करने के लिए गुजरात से संप-सभा जो एक धार्मिक संगठन था, उसनें भी सहयोग देना शुरू कर दिया. संप-सभा भीलों से कराइ जा रही बेगारी के ख़िलाफ़ काम करता था. इस आन्दोलन से अलग-अलग गाँव से पांच लाख आदिवासी-भील जुड़ गए थे.

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मानगढ़ हत्याकांड का चित्ररूप

1903 में गोविन्द गुरु ने मानगढ़ को अपना ठिकाना चुना और वहां से अपना सामाजिक कार्य जारी रखा. 1910 तक आते-आते भीलों ने अंग्रेजों के सामने 33 मांगे रखी. जिनमें मुख्य रूप से अंग्रेजों और रजवाड़ों द्वारा करवाई जा रही बंधुआ मज़दूरी और लगान से जुड़ी थी. अंग्रेजों के आलावा यहाँ के स्थानीय जमींदार, सामंत भी इनका शोषण करने में पीछे नहीं थे. इसी के विरोध में गोविन्द दुरु ने भगत आन्दोलन शुरू हुआ था. जब जमींदारो, सामंतो और रजवाड़ों को लगा की भगत आन्दोलन दिन प्रति दिन बड़ा होता जा रहा है तो उन्होंने अंग्रेजों को इस बात की जानकारी दी. अंगेजों ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर लिया. लेकिन आदिवासियों के भयंकर विरोध के चलते अंग्रेजों ने गोविन्द गुरु को रिहा कर दिया. इसका असर यह हुआ कि इन हुक्मरानों का जुल्म आदिवासियों पर और बढ़ गया. यहाँ तक की उन पाठशालाओं को भी बंद करवाना शुरू कर दिया जहाँ आदिवासी बेगारी के विरोध की शिक्षा ले रहे थे.

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आज की तारीख़ में मानगढ़ पहाड़ी पर जाने का रास्ता

मांगे ठुकराए जाने, खासकर बंधुआ मज़दूरी पर कुछ भी एक्शन न लेने की वजह से आदिवासी गुस्सा हो गए और घटना से एक महीने पहले मानगढ़ की इस पहाड़ी पर एकत्रित होना शुरू हो गए. ये लोग नारे के रूप में सामूहिक-रूप से एक गाना गाते थे, ” ओ भुरेतिया नइ मानु रे, नइ मानु

इस दौरान अंग्रेजो ने आख़िरी चाल और चली इसमें उन्होंने जुताई के बदले साल के सवा रुपये देने का वादा किया जिसें आदिवासियों ने ठुकरा दिया. तब अंग्रेजों ने 15 नवम्बर, 1913 तक पहाड़ी को खाली करने का आदेश दे डाला.

इन्ही दिनों एक घटना और घटी हुआ यूँ के गठरा और संतरामपुर गाँव के लोग गुजरात के थानेदार गुल मोहम्मद के अत्याचारों से परेशान थे. उससे निपटने के लिए गोविन्द गुरु के सबसे नज़दीकी सहयोगी पूंजा धीरजी पारघी ने कुछ लोगो के साथ मिलकर उसकी हत्या कर दी. एक ही समय इन दो घटनाओं, पहाड़ी पर जमा होना और गुल मोहम्मद की हत्या, से अंग्रेजों को बहाना मिल गया.

मानगढ़ हिल
मानगढ़ हिल

17 नवम्बर, 1913 को मेजर हैमिलटन ने अपने तीन अधिकारी और रजवाड़ों व उनकी सेनाओं के साथ मिलकर मानगढ़ पहाड़ी को चारो ओर से घेर लिया. उसके बाद जो हुआ वह दिखाता है कि शक्ति का होना, संवेदना के लिए कितना हानिकारक है. खच्चरों के ऊपर बंदूकें लगा उन्हें पहाड़ी के चक्कर लगवाए गए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग मरे. इस घटना में 1500 से भी ज्यादा लोग मारे गए और न जाने कितने ही घायल हुए. गोविन्द गुरु को फिर से जेल में दाल दिया गया हालाँकि उनकी लोकप्रियता और जेल में अच्छे बर्ताव के कारण हैदराबाद जेल से रिहा कर दिया. उनके सहयोगी पूंजा धीरजी को काले-पानी की सजा मिली. इनके अलावा 900 अन्य लोगों की भी गिरफ़्तारी हुई.मानगढ़ धाम

इस हत्याकांड का इतिहास में बहुत कम उल्लेख क्यों हैं? इसकी वजह तब क्या रही होगी यह तो नहीं पता लेकिन अब क्यों नहीं इसका ज़िक्र होता है इसकी वजह ज़रूर हमलोग है. हाल ही के दिनों में ख़ुद को ही राष्ट्रभक्त का तमगा देने वाले और अपने किए गए काम को राष्ट्रभक्ति समझने वालों को तो कम से कम इन्हें याद ही रखना चाहिए, जिन्होंने सचमुच उस समय काम किया था.

भील आदिवासियों को आज भी समाज में वह स्थान नहीं मिला है जिनके ये हक़दार है. जो महाराणा प्रताप को पूजते है वह भी इनके लिए नहीं लड़ रहे हैं जबकि बता दिया जाए कि महाराणा प्रताप आदिवासियों को बड़ी इज्ज़त देते थे और आदिवासी भी उन्हें बहुत मानते थे. इतिहास गवाह है. वह इतिहास जिसे तोडा-मारोड़ा नहीं गया. 

शायद ही महाराणा प्रताप और गोविन्द गुरु के बाद इन आदिवासियों को कोई ऐसा व्यक्ति मिला हैं जिसने इनकी आवाज़ को उठाया है. यह बात विचारणीय है.   

 

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उदयपुर में जन्मी ऐन्द्रिता रे जल्द ही बॉलीवुड डेब्यू करने जा रही है, एक नज़र उनके सफ़र पर…

ऐन्द्रिता रे, कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री की सुपरस्टार, अब जल्द ही बॉलीवुड में एंट्री लेने जा रही है। आपको यह जानकर आश्चर्य भी होगा और ख़ुशी भी कि ऐन्द्रिता रे का जन्म उदयपुर में हुआ है। ऐन्द्रिता, कन्नड़ फिल्म ‘मनासारे’ में निभाए अपने दमदार करैक्टर ‘देविका’ के लिए जानी जाती है। इस फिल्म को क्रिटिक्स ने काफ़ी पसंद किया था, उन्होंने इसके लिए 4 अवार्ड्स भी जीते। 5 बार की फिल्मफेयर अवार्ड नॉमिनेटेड एक्ट्रेस के उदयपुर से कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री होते हुए बॉलीवुड तक के सफ़र पर एक नज़र।

शुरूआती जीवन और बैकग्राउंड:aindrita ray

ऐन्द्रिता का जन्म उदयपुर के एक बंगाली परिवार में हुआ। इनका शुरूआती बचपन उदयपुर की झीलों और पहाड़ियों को देखते हुए निकला। पिता ऐ.के. रे के इंडियन एयर फाॅर्स में प्रोस्थोदोंटिस्ट (डेंटल प्रोस्थेटिक्स) के पद पर होने की वजह से उन्हें मुंबई शिफ्ट होना पड़ा। इंडियन एयर फाॅर्स में होने के कारण अक्सर तबादले होने की वजह से अलग-अलग शहरों में रहना पड़ा। आख़िर में पूरा परिवार बैंगलोर आकर रहने लग गया।

डेब्यू और ब्रेकथ्रू: aindrita ray

ऐन्द्रिता रे फैशन कोरियोग्राफर एम्.एस. श्रीधर की स्टूडेंट रही है। सबसे पहले उन्हें कन्नड़ फिल्म ‘जैकपोट’ के एक गाने में देखा गया। जबकि एक्टिंग करियर 2008 में आई ‘मेरावैंगे’ से शुरू हुआ। फिल्म तो ज्यादा कुछ कमाल नहीं कर पाई लेकिन ऐन्द्रिता की एक्टिंग और डांसिंग क्राफ्ट को rediff.com जैसी वेबसाइट ने काफी सराहा। उसी साल एक और कन्नड़ फिल्म में इनका केमियो भी था।

शरुआती सफलता और उसके बाद की कहानी: aindrita ray

ऐन्द्रिता की 2009 में एक और फिल्म आई नाम था ‘वायुपुत्र’ जिसमें इनके अपोजिट थे चिरंजीवी सर्जा। इसके बाद इनकी एक और सफल मूवी परदे पर आई ‘लव गुरु’। लेकिन 2009 में आई ‘मनासारे’ ने ऐन्द्रिता के जीवन को पलट कर रख दिया। इस फिल्म ने ऐन्द्रिता को रातों-रात कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री का स्टार बना दिया। न सिर्फ कन्नड़ फिल्मों यहाँ तक की ‘मनासारे’ की सफलता की गूँज ‘फिल्मफेयर अवार्ड्स’ तक भी गई और ऐन्द्रिता बेस्ट एक्ट्रेस की केटेगरी में नोमिनेट हुई। इसके बाद तो ऐन्द्रिता के आगे ढेर सारी फिल्मों की लाइन लग गई। 2010 में आई एक और फिल्म ‘वीरा परम्परे’ भी बॉक्स ऑफिस पर कामयाब हुई और एक बार फिर ऐन्द्रिता ‘फिल्मफेयर अवार्ड फॉर बेस्ट एक्ट्रेस’ के लिए नोमिनेट हुई। इसी साल इनकी एक पैरेलल बॉलीवुड फिल्म भी आई जिसका नाम ‘अ फ्लैट’ था। लेकिन ये इनका बॉलीवुड डेब्यू नहीं था।

करियर के शुरुआती दौर में मिली ग्रैंड सफलता की चमक अगले दो साल में फीकी पड़ती नज़र आई। लगातार 3-4 फिल्मों के फ्लॉप हो जाने के कारण इसका असर उनके करियर पर भी दिखने लगा। इस वजह से उन्हें तेलुगु सिनेमा और बंगाली सिनेमा की ओर रुख़ करना पड़ा। हालाँकि इन दोनों जगह किया इनका ये काम सराहा गया और एक बार फिर ये कन्नड़ फिल्मों में लौट आई। aindrita ray

2018 इनके लिए ख़ास साबित होने जा रहा है। बंगाली सिनेमा के मशहूर डायरेक्टर राज चंदा की फिल्म में नज़र आएंगी और साथ ही साथ ये अपना बॉलीवुड डेब्यू भी कर रही है। इस फिल्म में अरबाज़ खान इनके अपोजिट होंगे जिसकी शूटिंग स्विट्जरलैंड में शुरू हो चुकी है। हम सभी उम्मीद करते है कि उनकी ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पर अच्छा करें और उदयपुर का नाम रोशन हो।

10 साल के अपने छोटे से करियर में पांच बार फिल्मफेयर जैसे अवार्ड्स के लिए नोमिनेट होना उनके अपने काम के प्रति लगन को दर्शाता है। ऐन्द्रिता रे का उदयपुर से होना शायद बहुत कम ही लोग जानते होंगे। इसलिए हमारी कोशिश थी कि ऐसे लोगों में ऐन्द्रिता को शामिल किया जाए जिन्हें शहर के लोग कम और देश-विदेश के लोग ज्यादा जानते है। ये हमारे शहर के लिए गर्व की बात है।

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इनको कई फिल्मों में देखा होगा अब ये भी जान लो कि ये हमारे शहर से ही हैं। जानिए इनके बारे में…

भारत के छोटे शहरों में बड़े सपने पलते है। इस बात को साबित करने के लिए आपको कई उदहारण मिल जाएँगे। इन्हीं उदाहरणों में से एक उदहारण हमारे अपने शहर उदयपुर का भी है। उदयपुर का युवा आज अपने सपनों को जीना चाहता है उसे पूरा करने के लिए अपनी जी-जान लगा देना चाहता है।

आज ऐसे ही एक लड़के की कहानी आपके सामने लेकर आ रहे है जो उदयपुर में पैदा हुआ लेकिन उसकी कर्म-भूमि बनी मायानगरी ‘मुंबई’। आज वो वहां अपने एक्टिंग के झंडे गाड़ रहा है। हम बात कर रहे है राहुल सिंह की। वही राहुल सिंह जिन्हें आपने ‘ज़ुबैदा’ में देखा होगा या फिर ‘देल्ही-बेल्ली’ में या फिर ‘खिलाड़ी 786’ में…शायद अब तक तो आपके दिमाग में तस्वीर साफ़ हो चुकी होगी। rahul singh

राहुल सिंह का जन्म उदयपुर के एक ठाकुर घराने में हुआ था। जो जागीरदारी से ताल्लुक रखता था। जब राहुल का जन्म हुआ तब उनके पिताजी किसानी के साथ-साथ पढ़ाई कर रहे थे। इनकी माताजी डॉ. प्रभा ठाकुर एक बहुत अच्छी कवयित्री और राज्यसभा सदस्य भी है। डॉ. प्रभा ठाकुर आल इंडिया वीमेन कांग्रेस की अध्यक्ष भी है। ये तीन बार की सांसद चुनी गई है और कांग्रेस पार्टी में अपना एक बड़ा स्थान रखती है।

एक ठाकुर फॅमिली में पैदा होना और फिर बॉलीवुड में जाना एक अजीब संयोग है वो भी तब जब आप उदयपुर जैसे शहरों से निकलते हो और इस फील्ड में अपना करियर बनाने की सोचते हो। लेकिन चूँकि राहुल की माँ खुद एक कवयित्री रह चुकी है शायद इसी वजह से उनका रूझान भी आर्ट की तरफ हुआ हो।rahul singh

राहुल सिंह अब तक 24 फिल्मों में काम कर चुके है जिनमें से कुछ ये रही :-

  1. ज़ुबैदा
  2. बादशाह
  3. देल्ही-बेल्ली
  4. स्टेनले का डिब्बा
  5. तेरे बिन लादेन
  6. खिलाड़ी 786
  7. द गाज़ी अटैक आदि

फेहरिस्त लम्बी है लेकिन सभी का ज़िक्र यहाँ मुमकिन नहीं है। ऐसा नहीं था कि राहुल ने सीधा मुंबई का रुख़ किया हो और फिल्मों से एनकाउंटर हो गया। राहुल जब 1st क्लास में थे तब उनका परिवार मुंबई शिफ्ट हो गया था इसकी वजह डॉ. प्रभा ठाकुर यानि राहुल की माँ को अपनी कविताओं के लिए उदयपुर में अपोर्च्यूनिटी का नहीं मिलना था। वहां उनकी पढ़ाई स्लिवर बिच स्कुल में शुरू हुई। लेकिन पढ़ाई में अच्छे नहीं होने के कारण और लव लेटर्स लिखने की वजह से उनके माता-पिता ने उन्हें फिर से राजस्थान भेजने का निश्चय किया। जहां उनका दाखिला अजमेर के मेयो कॉलेज में हुआ और फिर ग्रेजुएशन सेंट. ज़ेवियर कॉलेज से थिएटर विषय में किया। इस दौरान राहुल के माथा-पिता फिर से उदयपुर में आ गए जहां इनके पिता होटल इंडस्ट्रीज़ से जुड़ गए और माँ राजनीति में आ गई।rahul singh

ग्रेजुएशन के बाद राहुल तीन साल के कोर्स लिए रॉयल अकादमी ऑफ़ आर्ट्स, इंग्लैंड चले गए। वहां उन्होंने अभिनय की बारीकियां सीखी। लिखना उन्हें शुरू से अच्छा लगता था।

जब वे भारत लौटे तो मॉडलिंग में हाथ अजमाना शुरू कर दिया। इंडस्ट्री में पहला काम एक एड शो मिला जिसका सिलसिला बढ़ते-बढ़ते एक अलग उचाई पर है। पहला ब्रेक श्याम बेनेगल की मूवी ‘ज़ुबैदा’ से मिला। उसके बाद कुछ अच्छी मूवीज़ मिलती रही। एक ख़ास बात इनकी ये है कि हर बार एक नया किरदार किसी यूनिक स्टाइल से अदा करते है इसलिए कभी मुंबई जाती भीड़ में उनका नाम नहीं आया। थिएटर करना और थिएटर की समझ रखना भी इसका एक बहुत बड़ा कारण रहा है। राहुल सिंह ने न सिर्फ अभिनय में अपना हाथ आजमाया उन्होनें कई फिल्मों के स्क्रीनप्ले और डायलॉग तक लिखे है। कुछ उदहारण ये रहे :- रानी(डायलॉग), कांटे(डायलॉग), कच्ची सड़क(स्क्रीनप्ले), तिग्मांशु धुलिया किआने वाली एक फिल्म(स्क्रीनप्ले)।Rahul Singh

राहुल ने फिल्मों के साथ-साथ टीवी सिरेअल्स और थिएटर प्लेज़ भी किए है जैसे :-

टीवी :-

  • संविधान (आचार्य कृपलानी)
  • 24 (विक्रांत मौर्या)
  • पेशवा बाजीराव (औरंगज़ेब) आदि

प्लेज़ :-

  • द शाल बाय डेविड ममेट
  • हैमलेट एंड द मर्चेंट ऑफ़ वेनिस बाय शेक्सपियर
  • द ब्लैक कैट बाय एडगर अलान पोए आदि

उम्मीद है आपको इनके बारे में पढ़कर और जानकर अच्छा लगा होगा। इससे पिछले अंक में हमनें आपको दौलत सिंह कोठारी जी से परिचय करवाया था इस बार राहुल सिंह से करवा रहे है। अगले अंक में किसी नए हस्ती के साथ आपसे मिलेंगे जिन्हें देश-विदेश तो जानता है पर हमसे कहीं चुक हो गई। तब तक के लिए अलविदा।

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उदयपुर के पद्म विभूषण विजेता वैज्ञानिक जिन्हें हम भुला चुके है लेकिन विश्व आज भी याद करता है।

उदयपुर का इतिहास बहुत ही सुनहरा रहा है ये बात तो हम सभी जानते ही है। इस सुनहरे इतिहास को बनाने वालों की लिस्ट बड़ी लंबी है। कई बार हम उसे पूरा नहीं होने देते है और उदयपुर का नाम आती ही अक्सर बात को रजवाड़ों या उनके इर्द-गिर्द ही सिमित कर देते है। उसी लिस्ट में से आज हम आपको मिलवाने जा रहे है उदयपुर में जन्में वैज्ञानिक दौलत सिंह कोठारी से।DR._DAULAT_SINGH_KOTHARI

सन् 1906, उदयपुर में जन्में दौलत सिंह कोठारी न सिर्फ विख्यात वैज्ञानिक थे इसके साथ वह एक जाने-मने शिक्षाविद भी थे। उनकी महानता का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते है कि मिरांडा हाउस, दिल्ली विश्वविद्यालय में उनके नाम पर रिसर्च सेंटर का नाम रखा गया है। D.S. Kothari Research Centre, Miranda House, Delhi University.

दौलत सिंह कोठारी का जन्म 6 जुलाई 1906 को उदयपुर में हुआ। उनकी शुरूआती पढ़ाई उदयपुर और इंदौर के स्कूलों में हुई। बाद में मास्टर्स के लिए वे ‘इलाहबाद यूनिवर्सिटी’ चले गए। जहां इन्होने मेघनाद साहा के नेतृत्व में अपनी पढ़ाई पूरी की। इन्होने अपनी पीएचडी विश्वप्रसिद्ध ‘कैंब्रिज यूनिवर्सिटी’ से की। जहाँ उनके गुरु ‘अर्नेस्ट रदरफोर्ड’ थे। साइंस स्ट्रीम से अपनी पढाई करने वालों के लिए अर्नेस्ट रदरफोर्ड कोई अनजाना नाम नहीं है। फिर भी अगर आप उन्हें नहीं जानते है तो शायद आपने ग्याहरवी और बाहरवी अच्छे से नहीं पढ़ी है।

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Photo Courtesy: Patrick Maynard Stuart Blackett, Baron Blackett of Chelsea (1897-1974, British), Physicist
Daulat Singh Kothari (1906-1993, Indian), Physicist

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वे भारत लौटे तो उन्होंने ‘दिल्ली विश्वविद्यालय’ में प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए और बाद में हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट, फिजिक्स रहे। ये बात है सन् 1931 से सन् 1961 के बीच की। इस दौरान सन् 1948 से 1961 तक वे मिनिस्ट्री ऑफ़ डिफेन्स में साइंटिफिक एडवाइजर भी रहे। सन् 1961 में उन्हें यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन के चेयरमैन पद पर नियुक्त किया गया। जहां इनका कार्यकाल सन् 1973 तक चला। 1964-66 के दौरान एजुकेशन कमीशन के चेयरमैन पद पर रहते हुए उन्होंने कोठारी कमीशन निकाला जो कि जिसमें देश में पहली बार एजुकेशन सेक्टर के लिए मॉडर्नाइज़ेशन और स्टेंडरडाइज़ेशन जैसे शब्दों को देश की ज़रूरत बताया।

उनके उपलब्धियों और सम्मनों पर एक नज़र:

  • 1963 में इंडियन साइंस कांग्रेस के गोल्डन जुबली समारोह में अध्यक्ष पद पर रहे।
  • 1973 में इंडियन नेशनल साइंस अकादमी के अध्यक्ष पद पर चुने गए।
  • स्टैटिस्टिकल थर्मोडायनामिक्स पर रिसर्च और वाइट ड्वार्फ स्टार्स थ्योरी से उन्हें विश्व में पहचान मिली।
  • 1962 में पद्म भूषण।
  • 1973 में पद्म विभूषण से सम्मानित।
  • सन् 2011 में डिपार्टमेंट ऑफ़ पोस्ट्स ने उनके नाम का पोस्ट जारी किया।Daulat-Singh-Kothari
  • दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक बॉयज हॉस्टल का नाम उनके नाम पर है।
  • मिनिस्ट्री ऑफ़ डिफेन्स में भी हॉस्टल और ऑडिटोरियम का नाम उन्ही के नाम पर रखा गया है।

उम्मीद है आपको ये सब पढ़कर अच्छा लगा होगा। हम आगे भी कुछ ऐसी ही शख्सियत से आपको रूबरू करवाएंगे। तब तक के लिए अलविदा।

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‘देबारी की ऐतिहासिक गुफ़ा’ जहां मीटर गेज़ ट्रेन चला करती थी, अब वहां ‘टॉय ट्रेन’ चलेगी..

देबारी, उदयपुर स्थित राजस्थान की सबसे पहली रेलवे टनल और कभी अपने टाइम पर सबसे लम्बी टनल रही ‘देबारी की गुफ़ा’ में अब जल्द ही ‘टॉय ट्रेन’ चलेगी। इंडियन रेलवेज़ ने उस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिखा दी है जिसमें इस संभावना पर विचार करने को कहा गया था। साल 2016, में इस प्रोजेक्ट को रेलवे मिनिस्ट्री भेजा गया था। जिसको ToI ने भी कवर किया था। अब जब इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी मिल गई है तो उदयपुर के लोगो को इंतज़ार है तो बस इस बात का कि इस प्रोजेक्ट पर जल्द से जल्द काम शुरू होवे।

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picture courtesy: RMWEB

देबारी टनल का इतिहास:

देबारी टनल का ब्रॉडगेज़ परिवर्तन के बाद से पिछले 12 साल में कोई इस्तेमाल नहीं लिया गया। लेकिन अगर हम इन 12 सालों को छोड़ दे तो इस देबारी टनल का इतिहास बड़ा रोचक रहा है। आपको बता दें देबारी टनल करीब 119 बरस पुरानी है। इसे सन् 1889 में बनाया गया था। सन् 1884 में महाराणा सज्जन सिंह ने पहली बार उदयपुर को रेल नेटवर्क से जोड़ने का प्रयास किया। सन् 1885 तक सभी महत्वपूर्ण सर्वे और कागज़ी करवाई भी कम्पलीट होने को आ गई थी। लेकिन महाराणा के आकस्मिक देहांत की वजह से यह प्रोजेक्ट अनिश्चितकालीन अवधि के लिए रुक गया। हालाँकि इसके 10 साल बाद महाराणा फ़तेह सिंह जी ने इस प्रोजेक्ट को फिर से शुरू करवाया और इस तरह उदयपुर पहली बार सन् 1895 में रेल नेटवर्क से जुड़ा लेकिन सिर्फ़ देबारी तक ही। देबारी-चित्तौडगढ़ रेल लाइन 60 मील लम्बी थी और इसी पर थी ऐतेहासिक देबारी टनल। लेकिन रेल लाइन को उदयपुर तक आने में 4 साल लग गए। क्योंकि अगस्त,1895 से लेकर दिसम्बर, 1899 तक, उदयपुर-देबारी के इस 6.5 मील लम्बे ट्रैक को बॉम्बे-बरोड़ा और सेंट्रल लाइन ऑपरेट करते थे। 25 अगस्त, 1899 को इस छोटे से टुकड़े को देबारी-चित्तौडगढ़ रेल लाइन से जोड़ लिया गया और इस तरह उदयपुर ने पहली बार रेल लाइन को देखा। 

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picture courtesy: RMWEB

सन् 2005 के बाद उदयपुर-चित्तौड़गढ़ रेल-लाइन ब्रॉडगेज़ में तब्दील हो गई और देबारी-टनल का उपयोग भी उसी के साथ थम गया। देबारी टनल का इस तरह वीरान पड़े रहना कई लोगो को तकलीफ़ देता रहा है। बीच में कई बार इसको टूरिस्ट अट्रैक्शन बनाने की मांग भी उठती रही थी। इसका इस तरह यूँ वीरान पड़े रहना इसलिए भी अखरता था क्योंकि देबारी टनल उस समय की बनी उन जटिल कलाकृतियों में से थी जिसे तब के कारीगरों ने बिना किसी मशीन की सहायता से, सिर्फ़ हाथ-हथौड़ो की मदद से बनाया था। यह सच में एक अजूबा है। 

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picture courtesy: RMWEB

देबारी टनल और टॉय ट्रेन: toy train

शुक्रवार को जब इस प्रपोजल को एक्सेप्ट किया जा रहा था तब राजस्थान के गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया, जोनल मैनेजर पुनीत चावला भी मौजूद थे। पुनीत चावला ने कहा है कि यह टॉय ट्रेन UIT या नगर निगम, उदयपुर की देखरेख में चलेगी। इस प्रोजेक्ट का एस्टीमेट बजट 5 करोड़ रूपए का है।

जल्दी ही टॉय ट्रेन के लिए ट्रैक लगा दिया जाएगा साथ ही साथ दोनों तरफ रेलवे स्टेशन भी बनाए जायेंगे। सिग्नल्स भी लगे जाएँगे ताकि बच्चे इन सबको देखकर कुछ सीखें। 🙂

 

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राजस्थान की इस धरोहर को क़रीब से जानने और सीखने का मौका

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picture credit: fine art america

‘लोक कला मंडल’ नाम सुनते ही एक बारगी डांस, म्यूजिक और ड्रामा/थिएटर ही दिमाग़ में आता है। लेकिन इन सबके आलावा और भी बहुत कुछ होता है वहां। अगर आप क्रिएटिव फील्ड में जाना चाहते है या सिर्फ खाली समय का सदुपयोग करना चाहते है तो इस बार लोक कला मंडल आप सभी के लिए लाया है ‘पपेट एंड टॉय मेकिंग वर्कशॉप’। कल यानि 6 अप्रैल से शुरू हो रही इस वर्कशॉप में 8 साल से ऊपर कोई भी व्यक्ति भाग ले सकता है। यह वर्कशॉप 6 अप्रैल से शुरू होकर 25 अप्रैल तक चलेगी। इस वर्कशॉप में हम सभी को ट्रेनिंग मोनिका शर्मा देंगी। मोनिका शर्मा, नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ फैशन एंड टेक्नोलॉजी (NIFT) से है। मोनिका, यहाँ के स्थानीय कलाकारों के साथ मिलकर पेपर, वुड(लकड़ी) और कपड़ों की मदद से टॉयज और पपेट बनाने की वर्कशॉप लेंगी। यह उन सभी के लिए एक सुनहरा अवसर है जो इस फील्ड में जाना चाहते है या फिर अपने खाली समय का अच्छा उपयोग लेना चाहते हो, कुछ क्रिएटिव करना चाहते हो।

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picture credit: kalaahut

पपेट( कठपुतली ) के नाम लेते ही सबसे पहले राजस्थान का ही चित्र उभरकर आता है। राजस्थान में भी उदयपुर ही एकमात्र ऐसा शहर है जहाँ कठपुतली को लेकर हर शाम शो किए जाते हो। यह हमारी धरोहर है। हमारी कला है। जिसे ज़िन्दा रखना हमारा ही कर्तव्य है। लोक कला मंडल समय-समय पर ऐसी कई वर्कशॉप पहले भी लगाता आया है। इन वर्कशॉप का उद्धेश्य होता है कला को दूसरों तक पहुँचाना ताकि यह ज़्यादा से ज़्यादा लोगो तक पहुँच सके और ज़िन्दा रह सके। हमारी भी एक ज़िम्मेदारी बनती है लोकल आर्ट फॉर्म्स को सीखना। हम बहुत खुश होते है जब बगौर की हवेली पर या लोक कला मंडल में किसी विदेशी को इन आर्ट फॉर्म्स पर तालियाँ बजाते हुए। ये विदेशी बाहर से आकर ऐसी वर्कशॉप का हिस्सा बन जाते है लेकिन कहीं न कहीं हम इन सब से दुरी बनाए हुए बैठे है।

अपने अन्दर के कलाकार को जगाइए और इस बार गर्मी के दिनों को और बेहतर बनाइए।

वर्कशॉप – पपेट एंड टॉयज मेकिंग

ट्रेनर – मोनिका शर्मा( निफ्ट ) 

जगह – लोक कला मंडल

समय – 6 अप्रैल से 25 अप्रैल हर शाम 5 बजे से 7 बजे तक