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History and Culture

राजस्थान का ‘जालियाँवाला बाग़’ हत्याकांड, जब 1500 बेक़सूर लोग मारे गए।

13 अप्रैल, 1919 जगह जालियाँवाला बाग़, अमृतसर, पंजाब. इस घटना को शायद ही कोई भारतीय होगा जो नहीं जानता होगा. यह घटना भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की किताब का बहुत बड़ा अध्याय रही है. कई आम लोग इस घटना से प्रभावित हुए और स्वतंत्रता संग्राम में उतरने का फैसला किया. ब्रिटिश सरकार की माने तो इस हत्याकांड में 379 लोग मारे गए और 1200 से अधिक घायल हुए. लेकिन तत्कालीन अख़बारों [ तब फेक न्यूज़ नहीं हुआ करती थी ] के अनुसार मृत्यु का आंकड़ा 1000 के आसपास तक था.

ऐसा ही कुछ दर्दनाक और वीभत्स हत्याकांड दक्षिणी राजस्थान में भी हुआ था. जो इतिहास के पन्नों में दूसरी घटनाओं के तले छुप गया. यह हत्याकांड जालियाँवाला बाग़ में हुए हादसे से भी बड़ा था.

मानगढ़ हत्याकांड
मानगढ़ हत्याकांड, 1913

हम बात कर रहे है ‘मानगढ़ धाम हत्याकांड’ जालियाँवाला बाग़ हत्याकांड से 6 साल पहले हुआ. तारीख़ थी 17 नवम्बर, 1913. मानगढ़ एक पहाड़ी का नाम है जहाँ यह घटना घटी थी.

घटना का जन्म लेना :-

गोविन्द गुरु
गोविन्द गुरु

गोविन्द गुरु, एक सामाजिक कार्यकर्त्ता थे तथा आदिवासियों में अलख जगाने का काम करते थे. उन्होंने एक 1890 में इक आन्दोलन शुरू किया. जिसका उद्देश्य था आदिवासी-भील कम्युनिटी को शाकाहार के प्रति जागरूक करना और इस आदिवासियों में फैले नशे की लत को दूर करना था. इस आन्दोलन का नाम दिया गया ‘भगत आन्दोलन’. इस दौरान भगत आन्दोलन को मजबूती प्रदान करने के लिए गुजरात से संप-सभा जो एक धार्मिक संगठन था, उसनें भी सहयोग देना शुरू कर दिया. संप-सभा भीलों से कराइ जा रही बेगारी के ख़िलाफ़ काम करता था. इस आन्दोलन से अलग-अलग गाँव से पांच लाख आदिवासी-भील जुड़ गए थे.

banswara mangarh dham
मानगढ़ हत्याकांड का चित्ररूप

1903 में गोविन्द गुरु ने मानगढ़ को अपना ठिकाना चुना और वहां से अपना सामाजिक कार्य जारी रखा. 1910 तक आते-आते भीलों ने अंग्रेजों के सामने 33 मांगे रखी. जिनमें मुख्य रूप से अंग्रेजों और रजवाड़ों द्वारा करवाई जा रही बंधुआ मज़दूरी और लगान से जुड़ी थी. अंग्रेजों के आलावा यहाँ के स्थानीय जमींदार, सामंत भी इनका शोषण करने में पीछे नहीं थे. इसी के विरोध में गोविन्द दुरु ने भगत आन्दोलन शुरू हुआ था. जब जमींदारो, सामंतो और रजवाड़ों को लगा की भगत आन्दोलन दिन प्रति दिन बड़ा होता जा रहा है तो उन्होंने अंग्रेजों को इस बात की जानकारी दी. अंगेजों ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर लिया. लेकिन आदिवासियों के भयंकर विरोध के चलते अंग्रेजों ने गोविन्द गुरु को रिहा कर दिया. इसका असर यह हुआ कि इन हुक्मरानों का जुल्म आदिवासियों पर और बढ़ गया. यहाँ तक की उन पाठशालाओं को भी बंद करवाना शुरू कर दिया जहाँ आदिवासी बेगारी के विरोध की शिक्षा ले रहे थे.

Mangarh Dham banswara
आज की तारीख़ में मानगढ़ पहाड़ी पर जाने का रास्ता

मांगे ठुकराए जाने, खासकर बंधुआ मज़दूरी पर कुछ भी एक्शन न लेने की वजह से आदिवासी गुस्सा हो गए और घटना से एक महीने पहले मानगढ़ की इस पहाड़ी पर एकत्रित होना शुरू हो गए. ये लोग नारे के रूप में सामूहिक-रूप से एक गाना गाते थे, ” ओ भुरेतिया नइ मानु रे, नइ मानु

इस दौरान अंग्रेजो ने आख़िरी चाल और चली इसमें उन्होंने जुताई के बदले साल के सवा रुपये देने का वादा किया जिसें आदिवासियों ने ठुकरा दिया. तब अंग्रेजों ने 15 नवम्बर, 1913 तक पहाड़ी को खाली करने का आदेश दे डाला.

इन्ही दिनों एक घटना और घटी हुआ यूँ के गठरा और संतरामपुर गाँव के लोग गुजरात के थानेदार गुल मोहम्मद के अत्याचारों से परेशान थे. उससे निपटने के लिए गोविन्द गुरु के सबसे नज़दीकी सहयोगी पूंजा धीरजी पारघी ने कुछ लोगो के साथ मिलकर उसकी हत्या कर दी. एक ही समय इन दो घटनाओं, पहाड़ी पर जमा होना और गुल मोहम्मद की हत्या, से अंग्रेजों को बहाना मिल गया.

मानगढ़ हिल
मानगढ़ हिल

17 नवम्बर, 1913 को मेजर हैमिलटन ने अपने तीन अधिकारी और रजवाड़ों व उनकी सेनाओं के साथ मिलकर मानगढ़ पहाड़ी को चारो ओर से घेर लिया. उसके बाद जो हुआ वह दिखाता है कि शक्ति का होना, संवेदना के लिए कितना हानिकारक है. खच्चरों के ऊपर बंदूकें लगा उन्हें पहाड़ी के चक्कर लगवाए गए ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग मरे. इस घटना में 1500 से भी ज्यादा लोग मारे गए और न जाने कितने ही घायल हुए. गोविन्द गुरु को फिर से जेल में दाल दिया गया हालाँकि उनकी लोकप्रियता और जेल में अच्छे बर्ताव के कारण हैदराबाद जेल से रिहा कर दिया. उनके सहयोगी पूंजा धीरजी को काले-पानी की सजा मिली. इनके अलावा 900 अन्य लोगों की भी गिरफ़्तारी हुई.मानगढ़ धाम

इस हत्याकांड का इतिहास में बहुत कम उल्लेख क्यों हैं? इसकी वजह तब क्या रही होगी यह तो नहीं पता लेकिन अब क्यों नहीं इसका ज़िक्र होता है इसकी वजह ज़रूर हमलोग है. हाल ही के दिनों में ख़ुद को ही राष्ट्रभक्त का तमगा देने वाले और अपने किए गए काम को राष्ट्रभक्ति समझने वालों को तो कम से कम इन्हें याद ही रखना चाहिए, जिन्होंने सचमुच उस समय काम किया था.

भील आदिवासियों को आज भी समाज में वह स्थान नहीं मिला है जिनके ये हक़दार है. जो महाराणा प्रताप को पूजते है वह भी इनके लिए नहीं लड़ रहे हैं जबकि बता दिया जाए कि महाराणा प्रताप आदिवासियों को बड़ी इज्ज़त देते थे और आदिवासी भी उन्हें बहुत मानते थे. इतिहास गवाह है. वह इतिहास जिसे तोडा-मारोड़ा नहीं गया. 

शायद ही महाराणा प्रताप और गोविन्द गुरु के बाद इन आदिवासियों को कोई ऐसा व्यक्ति मिला हैं जिसने इनकी आवाज़ को उठाया है. यह बात विचारणीय है.