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कैसे महामारी में भी ज्ञानप्रकाश और उनके साथियों ने कोटड़ा में ज्ञान का प्रकाश बुझने नहीं दिया

साल 2020

लॉकडाउन हट चुका था। लेकिन महामारी का कहर जारी था। देश में हज़ारों की संख्या में मामले सामने आ रहे थे। राजस्थान भी इससे अछूता नहीं था। जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा, भीलवाड़ा और भरतपुर जैसे शहर सबसे ज़्यादा प्रभावित शहरों की लिस्ट में शामिल थे। जब लॉकडाउन था तब केवल बेहद आवश्यकताओं वाली सेवाएं ही बहाल थीं, लॉकडाउन के बाद भी ज़िन्दगी सामान्य नहीं हुई थी। सरकारी दफ़्तर, प्राइवेट कंपनियाँ खुल गयी थीं, लेकिन अपनी आधी क्षमता से ही। कुछ ने तो साल भर के लिए, वर्क फ्रॉम होम की सुविधा कर दी। दुकाने भी खुलने लगी थीं। लोग आहिस्ता-आहिस्ता महीनों सूनी पड़ी सड़कों पर आने लगे थे।

लेकिन, शिक्षा के क्षेत्र का हाल बुरा था। शहरी विद्यालयों – कॉलेजों ने ऑनलाइन क्लासेज़ लेना शुरू कर दिया था। लेकिन जो सबसे अधिक प्रभावित थे, पूरी महामारी में, उनकी ज़िंदगी आसान होती नज़र नहीं आ रही थी।

मैं बात कर रहा हूँ। सुदूर, गाँवों में बसे लोगों की। इनमें आप शहर की कच्ची बस्तियों में रहने वाले या दिहाड़ी पर ज़िंदा रहने वालों को भी गिन सकते हैं।

मानसून आधे से ज़्यादा राजस्थान को विदा कर चुका था और दक्षिणी राजस्थान में उसके चंद आख़िरी दिन बचे थे। बारिशों का दौर थम-सा गया था। हालाँकि, आसमान बादलों से भरा रहता था लेकिन वे मुश्किल से कहीं बरसते थे।

उन्हीं दिनों, मेरा उदयपुर ज़िले के आदिवासी अंचल में जाना हुआ। राजस्थान में सबसे ज़्यादा आदिवासी, दक्षिणी राजस्थान में रहते हैं। उदयपुर में, कोटड़ा तहसील आदिवासी बहुल क्षेत्र है।

मैं कोटड़ा तहसील के, गोगरूद गाँव में था और वहाँ शोध के दौरान, कई लोगों से मिल कर रहा था। देवला से 3 किलोमीटर आगे गोगरूद गाँव के बाहर, एक चाय की दुकान है। एक दिन वहाँ बैठा मैं चाय पी रहा था, तभी मेरे पीछे से, बच्चों की कतार कहीं से निकलती हुई आयी। वे संख्या में 30 के आसपास होंगे। चेहरे मास्क में छुपे हुए थे और हाथों में किताबें-कॉपियाँ थीं।

मैंने दुकानदार से पूछा कि ये बच्चे कहाँ से आ रहे हैं तो उसने बात को टाल दिया। लेकिन मेरा ध्यान उन्हीं पर था। कुछ ही देर में वे सारे बच्चे गायब हो गये। मैं कुछ दिन लगातार उसी गाँव में जाता रहा। अब दुकानदार मुझे पहचानने लगा था। बातचीत आगे बढ़ी तो मुझे उनका नाम पता लगा, ज्ञानप्रकाश। मैंने दुबारा उनसे वही सवाल पूछा, “ये इतने बच्चे कहाँ से आ रहे हैं?”

“पीछे स्कूल चलता है। ये सभी वहीं से पढ़कर आ रहे हैं।”

“लेकिन, स्कूल तो बंद है?”

“हाँ… सरकारी स्कूल बंद है। प्राइवेट भी बंद है। वैसे वह स्कूल नहीं… एक ट्यूशन की तरह है”

“कौन लेता है ट्यूशन?”

“हम ही गाँव के लोग”

“थोड़ा समझायेंगे? मैं अभी तक समझ नहीं सका..”

“सर जी, कोरोना ने बहुत नुकसान पहुंचाया है। बड़े तो परेशान हुए ही है, बच्चों की भी पढ़ाई पर असर पड़ा है। अब शहर के बच्चे तो मोबाइल पर पढ़ रहे हैं। हमारे यहाँ मोबाइल कहाँ? मोबाइल हो तो नेटवर्क नहीं आता, मोबाइल और नेटवर्क दोनों हो तो इतने पैसे नहीं होते की हर महीने इंटरनेट डलवा सकें।

इसलिए, हम ने सोचा कि अपने गाँव के बच्चों को खुद ही पढ़ाया जाये। हम ने हमारे गाँव के तीन लोग चुने जो खुद भी पढ़े लिखे हो और वे बच्चों को पढ़ाना भी चाहते हो। ऐसे में तीन लोग सामने आये। वे तीनों भी स्कूल से नहीं, संस्था से पढ़े हैं। पहले यहाँ स्कूल नहीं थे तो एनजीओ काम करते थे, वहीं से पढ़े और बी.ए. की। वे भी चाहते थे कि अपने गाँव के बच्चों की किसी तरह मदद करे। फिर ये कोरोना आ गया… उन्होंने सोचा यही समय है मदद करने का। कुल 80 बच्चे आते हैं। एक जगह इतने बच्चों को पढ़ाना मुश्किल है इसलिए दो अलग-अलग जगह पढ़ाया जाता है। बच्चों के जो जगह नज़दीक पड़ती है वह वहाँ पढ़ने जाता है।”

“अभी कोई एनजीओ नहीं काम कर रहा?”

“तभी तो परेशानी है। कोटड़ा में कर रहे हैं लेकिन…कोटड़ा बहुत बड़ा है। हमारी साइड कोई नहीं कर रहा है।”

“महामारी में इस तरह पढ़ाना रिस्की हो सकता है।”

“तो आप ही बताओ क्या करें हम?… यह साल ऐसे ही जाने दें? पढ़ायेगा कौन इन्हें? किसको पता कब स्कूल खुलेंगे? शहर में तो बच्चे पढ़ रहे हैं, हमारे बच्चे पीछे रह जाएंगे। वैसे भी कोटड़ा को शहर के लोग अच्छी जगह नहीं समझते हैं। लेकिन, अब कोटड़ा बदल रहा है। जैसे हमनें किसी तरह से स्कूल पूरी की, हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे हम से भी ज़्यादा पढ़ें। अब उसके लिए तो रिस्क लेना पड़ेगा ना।

और वैसे भी हम सोशल डिस्टेंसिंग के साथ बिठाते हैं। सभी को मास्क दिए हुए हैं। हर बच्चे से महीने की फीस लेते हैं जो बहुत ही मामूली है ताकि हम पढ़ाने वालों को भी मेहनताना दे सकें और बचे पैसों से इनके हर महीने के लिए पेंसिल-किताबें-कॉपियाँ ला सके।”

मैंने जा कर वह जगह भी देखी जहाँ बच्चे पढ़ रहे थे। उन्होंने मुझसे एक मदद मांगी कि मैं किसी एनजीओ से कनेक्ट करवा दूँ तो बच्चे बिना किसी परेशानी के, लंबे समय तक पढ़ पाएंगे।

यह बात मेरे दिमाग में रह गयी थी। उदयपुर आकर मैंने कुछ छोटे-बड़े एनजीओ से बात भी की लेकिन बात बनी नहीं। कुछ के पास फण्ड की कमी थी तो कुछ ने इस बात का हवाला दिया कि यह एक लंबा प्रोसेस है जो कि इतनी जल्दी पूरा नहीं हो सकता।

मैं विवश था। तब मैंने एक फेसबुक पोस्ट लिखा और उसे पढ़ कर कुछ लोग मदद को आगे आये। इतना पैसा जुट गया था कि एक बार की ज़रूरत की चीज़ें लायी जा सके। हम लंबे समय तक उनकी मदद नहीं कर सकते थे, इसलिए हम ने एक लिस्ट बनायी जिसमें उन सभी चीजों को रखा जो लंबे समय तक बच्चों के काम आ सके, मसलन, उनके पास बैग नहीं थे तो बैग खरीद लिये। किताबें खरीद ली, कॉपियाँ खरीद ली और बॉक्स ले लिए जिसमें सभी ज़रूरत की सामग्री थीं। यह सिर्फ छोटी सी कोशिश थी ताकि उनका हौसला बना रहे। हम नहीं जानते थे कि वे कितने दिन और इस तरह उन्हें पढ़ा पाते। लेकिन जिस दिन उन बच्चों को यह सब मिला, वे बहुत खुश थे।




इस बात को महीने बीतने आये। 2020 ख़त्म हो गया। 2021 का पहला महीना भी बीत गया। अभी कुछ ही दिन पहले, ज्ञानप्रकाश जी का फ़ोन आया। वे बहुत खुश लग रहे थे। वे बोले, ” अभी – अभी एक एनजीओ वाले से मिलकर आया हूँ। वे यहाँ आये थे। वे हमारी मदद को तैयार हो गये हैं। मैंने घर आते ही सबसे पहले आप ही को फ़ोन लगाया, सोचा सर जी को बता दूँ।”

इसके बाद भी हमारी बहुत बातें हुई। लेकिन मुझे शब्दशः अगर कुछ याद है तो, वह है,

“वे हमारी मदद को तैयार हो गये। मैंने घर आते ही सबसे पहले आप ही को फ़ोन लगाया, सोचा सर जी को बता दूँ…”