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इनसे स्वेटर-जैकेट ख़ूब ख़रीदे होंगे, अब इन लोगो का संघर्ष भी जान लो।

ठण्ड आते ही गरम कपड़े याद आने लगते है और गरम कपड़े लेने के लिए सबसे पहले जो नाम दिमाग में आता है, वो है ‘समोर बाग़‘। एक विशाल गार्डन जो बड़े-बड़े पेड़ों से ढका हुआ है, यही वो जगह है जहाँ आपको मिलेंगे गरम कपड़े बेचते ‘तिब्बती लोग’। इनके द्वारा बनाए स्वेटर और जैकेट हम इतने सालों से पहनते आए है। लेकिन कभी आपने ये जानने की कोशिश की है कि ये लोग यहाँ कैसे आए? ऐसी क्या वजह रही होगी यहाँ आने की? क्यों ये लोग एक पराए देश जिसकी संस्कृति, भाषा, रहन-सहन अलग है, बावजूद इसके यहाँ आकर बस गए? ज़ाहिर सी बात है ये सभी सवाल हम सभी के मन में कभी न कभी ज़रूर उठे होंगे, बिल्कुल ऐसे ही सवाल हमारी एक राइटर के मन में भी उठे थे, और फिर चल पड़ी वो इन सवालों के जवाबों को जानने…TibetMarket-550x411

यहाँ खुशबू ने बात की टी ज़म्पा से, उन्होंने बताया – “समोर बाग़ आज से 23 साल पहले तक तिब्बतियों से भरा नहीं दिखता था जैसा कि आज देखने को मिलता है। लेकिन 23 पहले कुछ ऐसे हालात बने जिसकी वजह से हम लोग यहाँ आ गए। पर शुरुआत इसकी होती है 1959 में, जब चाइना ने तिब्बत पर हमला बोल दिया था। उस वक़्त क़रीब 80,000 से 90,000 तिब्बतीयों को दलाई लामा के साथ भारत में शरण लेनी पड़ी थी। हमें उत्तर भारत में आकर रहना पड़ा। कुछ 41 साल पहले 25-30 तिब्बती(हमारे पूर्वज) रिफ्यूजी उदयपुर भी आए और घर-खर्च  निकालने के लिए घर -घर जाकर हाथ से बने ऊनी कपडे़ और स्वेटर बेचने शुरू कर दिए। शुरू में यहाँ लोग हमसे सामान ख़रीदने से कतराते थे लेकिन समय के साथ लोगो ने हमें स्वीकारना शुरू कर दिया। बाद में हमें नगर पालिका से अशोका टाकीज़ के सामने फूटपाथ पर व्यापर करने की परमिशन मिल गई और उसके बाद 80 के दशक में चेतक सर्किल और टाउन हॉल में भी हमने मार्केट स्थापित कर दिया लेकिन संघर्ष हमारा यहीं ख़त्म नहीं हुआ था। कुछ सालों बाद ये सुविधाएँ हम से छीन ली गई, और इस तरह हम फिर से उसी हालत में आ गए जहाँ से हमने शुरुआत की थी। ये बहुत तकलीफ़देह था।

वो आगे बताते है, “तब महाराणा महेंद्र सिंह जी मेवाड़ ने तिब्बतियों को एक ख़त भेजा जिसमें लिखा था कि वे ये सब देखकर बहुत दुखी है। वे नहीं चाहते दलाई लामा के समर्थक शहर में इस क़दर भटकते रहे। इसी वजह से उन्होंने समोर बाग़ तिब्बतियों को देने का प्रस्ताव रखा और लिखा अगर आप इस प्रस्ताव को स्वीकारते हैं तो ये हमारे लिए ख़ुशी की बात होगी और इस तरह समोर बाग़ में तिब्बती बाज़ार की शुरुआत हुई। टी ज़म्पा ने बताया गवर्मेंट बॉडीज और दुसरे लोगों की तुलना में महाराणा महेंद्र सिंह जी ने हमें ये जगह बहुत ही कम किराए पर दी। ये किराया हम सभी दूकानवालों में बराबरी से बंटता है। 2006 में कीमतों को एक जैसा रखने और अन्य समस्याओं का सही से निपटारा करने के लिए एक संगठन बनाया गया जिसका नाम रखा ‘तिब्बतन रिफ्यूजी ट्रेडर्स एसोसिएशन’। ये संगठन बनाने की एक वजह पुरे भारत में फैले तिब्बतियों को आपस में जोड़ना भी था।

पाल्देन बताते है कि यहाँ की दुकानों में आपको हाथ और मशीन दोनों से बने कपड़े मिल जाएँगे, वो आगे बताते है, “हमने मशीन से बनाना 36 साल पहले लुधियाना में शुरू किया था क्योंकि तब इस चीज़ की डिमांड बहुत ज्यादा थी। आज भी हम शहर की डिमांड और पापुलेशन को ध्यान में रखकर ही सामान लाते है।”

तिब्बती ज्यादातर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, यूपी और बिहार से 3-4 महीने के लिए व्यापार करने आते है उसके बाद वापस चले जाते है। इन 3-4 महीनो में उनकी कमाई इन्हीं ऊनी कपड़ो की बिक्री से होती है बाकि के महीनों में ये सभी खेती और दूसरे कामों से अपनी जीविका चलाते है।

ये आर्टिकल क्यों लिखना ज़रूरी था – ये आर्टिकल लिखना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि आजकल रिफ्यूजीयों पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। सोशल मीडिया के इस दौर में जब इन्टरनेट इतना सस्ता हो चला है तब हर कोई इसका फ़ायदा उठाना चाहता है और उठाना भी चाहिए, ये आपका हमारा हक़ है। लेकिन इसी की आड़ में कई बार अफवाहें भी उड़ने लगती है, इस सस्ते इन्टरनेट का गलत इस्तेमाल भी होता है ये सब इंसानी समाज के गलत दिशा की ओर जाने का संकेत है। इनकी ज़िन्दगी तब भी अच्छी नहीं थी और आज भी एक रिफ्यूजी को अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता। रिफ्यूजीयों की ज़िन्दगी जीना कोई आसान काम नहीं होता है। हम हमेशा टीवी में देखते है पढ़ते है, कुछ देर उनके बारे में सोचते भी है और फिर भूल जाते है और अपने काम में लग जाते है, क्योंकि ये सब हमारे साथ नहीं हो रहा होता है। अब इसे हमारी आदत कहो या कमजोरी पर ये सही नहीं है। हमें कुछ भी लिखने, कहने से पहले हमेशा खुद को एक बार उस जगह रख कर ज़रूर देखना चाहिए। हमें ये समझना होगा यहाँ इस धरती पर रहने का सबको अधिकार है, शायद तब हम कुछ समझ पाए।

 

नोट : ये आर्टिकल सन 2011 में खुशबू बरनवाल ने उदयपुर ब्लॉग के लिए अंग्रेजी में लिखा था।