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महाराणा काल में गणगौर की सवारी का दृश्य | How Gangaur was celebrated in ancient times

हमारे देश में त्यौहार, समय अनुसार मनाये जाते हैं। उदयपुर के लोग राजाओं-महाराजाओं के काल से ही उत्सव-जलसे बड़े धूम-धाम से मनाते आए हैं। उन्ही त्योहारों में से एक है, गणगौर। गणगौर का त्यौहार चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की तीज पर आता है। आज हम आपको लेकर चल रहे हैं इतिहास के पन्नो में। क्या आपने कभी सोचा है कि महाराणा काल में गणगौर जैसा त्यौहार, जो कि आज भी इतना रंगीन और खुशनुमा है, उस वक़्त कैसे मनाया जाता था? इतिहास का विस्तृत पेश करती हुई गाथा वीर विनोद से आभार सहित कुछ अंश इस जश्न के, हम आपसे प्रस्तुत कर रहे हैं।

18 शताब्दी अर्थात महाराणा सज्जन सिंह जी  के काल में गणगौर के इस त्यौहार का विस्तृत वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है- “नवीन वर्ष आरम्भ होते ही सभी ज्योतिष-गण उत्तम वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित होकर, महाराणा की सेवा में उपस्थित होते है तथा शुभकामनाओं के साथ महाराणा को नवीन पंचाग भेंट करते है। गणगौर इसके अगले दिन मनाया जाता है। गणगौर के दिन सभी स्त्रियाँ सुन्दर वस्त्र और आभूषण पहनकर बाग़-बावड़ियों में जाती है। महाराणा के आदेश पर राज्य भर में जश्न होता है। ये जश्न किसी धूम-धाम से कम नहीं होता।

दिन के ठीक तीन बजे पहला नगाड़ा बजता है, उसके बाद दूसरा और फिर तीसरे नगाड़े पर महाराणा घोड़े पर विराजमान होते हैं। एकलिंगगढ़ पर 21 तोपों की सलामी दी जाती है। बड़ी पोल से त्रिपोलिया घाट तक दोनों तरफ़ लकड़ी के बड़े खूंटे लगा दिए जाते है और उन पर रस्सियाँ बाँध दी जाती है। इन खूटों के आसपास पुलिस के जवान पहरा देते हैं। इन पर बाँधी गयी रस्सी के भीतर राजकीय अधिकारियों के अलावा अन्य व्यक्ति नहीं आ सकता है। जब महाराणा की सवारी महल से रवाना होती है तब सवारी के बाद सबसे आगे मेवाड़ के राजकीय निशान से चिन्हित हाथी चलते हैं, उनके पीछे के हाथियों पर सरदार, पासवान और अन्य अधिकारी होते है।

सवारी में जंगी घुड़सवारों के साथ साथ अँग्रेज़ अफ़सर भी शरीक होते है। विदेशी बाजा बजता हुआ निकलता है और उसके पीछे निकलते है सोने चाँदी के हौदे जो ख़ास हाथी पर कसे हुए होते है। इसके साथ ही राज्य के बड़े-बड़े प्रतिष्ठित लोग, उमराव, सरदार और चारण घोड़ों पर आते है। इस कारवाँ के पीछे जरी व सोने-चाँदी से सुसज्जित घोड़े रहते है।”

महाराणा की सवारी का दृश्य कुछ इस प्रकार होता है


“मधुर, सुरीला बाजा बजता रहता है, उसके पीछे महाराणा अच्छी पोशाक, ‘अमर शाही’, ‘आरसी शाही’ और ‘स्वरूप शाही’ पगड़ियों में से एक किस्म की पगड़ी, जामा और नाना प्रकार के हीरे मोतियों के आभूषणों को धारण किये और कमर बंध व ढाल लगाए हुए घोड़े पर विद्यमान रहते है।

महाराणा के पीछे दूसरे सरदार, जागीरदार, पासवान व जंगी सैनिक रहते है और सबसे पीछे हाथी चलते है। सवारी के दोनों तरफ छड़ीदारो की बुलंद आवाज़ और आगे वीरता के दोहो का गायन करने वाले ढोलियो की आवाजें सवारी के आनंद को दोगुना कर देती है। इसी ठाठ बाट के साथ महाराणा धीरे-धीरे त्रिपोलिया घाट पर पहुंचते हैं और वह घोड़े से उतर कर नाव पर सवार होते हैं। इनमें से एक नाव के ऊँचे गोखड़े पर लगभग दो फुट ऊंचा सिंहासन रहता है, उस पर चार खम्बों वाली लकड़ी की एक छतरी होती है। सिंहासन और छतरी ज़र्दोजी और ज़री से सुशोभित होती है।  सिंहासन के चारो तरफ, नीचे के तख्तो पर शानदार पोशाकों व गहनों से सज्जित सरदार, चारण व पासवान अपने दर्जे के मुताबिक बैठते है और कितने ही अन्य लोग आसपास खड़े रहते है। महाराणा के पद के नीचे के सभ्यगण उसी के समीप जुड़ी हुई नाव में सवार होते है। नाव की सवारी धीरे-धीरे दक्षिण की तरफ बढ़ती है और बड़ी पाल तक जाने के बाद फिर लौट कर त्रिपोलिया घाट पर आती है। दक्षिण के तरफ बढ़ते हुए आतिशबाज़ी चलाने का हुक्म दिया जाता है, तालाब के किनारों तथा कश्तियो पर से तरह-तरह की रंग-बिरंगी आतिशबाज़िया होती है। ये सब देखने में बहुत आनंद आता है।

इस अवसर पर बहुत से लोग सवारी को देखने दूर-दूर से आते है, क्योंकि उदयपुर के गणगौर के जलसे की दूसरे  राजपुतानों में बड़ी तारीफ़ होती है। तालाब के किनारे देखने वाले लोगो की बड़ी भीड़ रहती है, इतनी की भीतर घुसना भी बहुत कठिन हो जाता है। इसके बाद महल से गणगौर माता की सवारी निकलती है, जिस के साथ नाना प्रकार की सुन्दर पोशाकों और सोने-चाँदी के गहनों से सुसज्जित दासियो के झुंड साथ चलते है। एक स्त्री के सिर पर लगभग 3 फुट ऊंची, सोने चाँदी के गहनों से शोभायमान, लकड़ी की बनी हुई गणगौर माता की मूर्ति रखी होती है। सवारी के आगे और पीछे, सवारी के लाज़मी हाथी घोड़ों पर पंडित व ज्योतिष लोग विद्यमान रहते हैं।

त्रिपोलिया घाट पर सवारी के पहुंचते ही महाराणा अपने सिंहासन से खड़े होकर गणगौर माता को प्रणाम करते है, फिर गणगौर माता को फर्श युक्त वेदिका पर रखकर, पंडित व ज्योतिषी लोग पूजन करके महाराणा साहिब को पुनः देते है। इसके बाद दासियाँ गणगौर माता के दोनों तरफ बराबर खड़े हो कर, प्रणाम के तौर पर झुकती हुई, “लहुरे” (एक तरह का गाना) गाती है। यह जलसा देखने लायक होता है। यहाँ राज्य में लकड़ी की बनी गणगौर की बड़ी मूर्ति के अलावा मिट्टी की बनी हुई गणगौर और दूसरे भगवानों की छोटी मूर्तियां भी देखी जा सकती है। बाकी शहर में दूसरे भगवान और गणगौर की मूर्तियां साथ ही निकाली जाती है।

राजपूताना की कुल रियासतों में इस त्यौहार को एक बड़े उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। इस देश में ऐसी कहावत है कि दशहरा राजपूतों के लिए और गणगौर स्त्रियों के लिए बड़ा त्यौहार है। यहाँ महादेव को ईसर (ईश्वर) और पार्वती को गणगौर कहते हैं। फिर गणगौर माता को जिस तरह जुलुस के साथ लाते हैं, उसी तरह फिर से महल में पहुंचाया जाता है। इसके बाद उसी फर्श पर दसियों द्वारा घूमर नृत्य और गाना-बजाना होता है। स्थानीय निवासी लोग भी नावों में सवार होकर इस जलसे को देखने के लिए आते हैं। आखिर में महाराणा रूप घाट पर नाव से उतर कर तामजान में सवार हो महल में पधार जाते है जहां कीमती गलीचे- मखमल का फर्श, ज़रदोज़ी के शामियाने व सोने चाँदी से बने हुए सिंहासन व कुर्सियां इनका इंतजार कर रही होती है और इस तरह यह जलसा पूरे 4 या उससे भी ज़्यादा दिन के लिए इसी तरह चलता रहता है”

उपरोक्त दृश्य की परिकल्पना मात्र ही आनंदमय लगती है। उस ज़माने की बात ही कुछ और थी। उम्मीद है आपको ये सब पढ़कर अच्छा लगा होगा। हम आगे भी कुछ ऐसे त्योहारों के बारे में आपको बताएँगे। कैसी लगी आपको हमारी ये पेशकश, हमें कमेंट्स में लिखकर ज़रूर बताएं। तब तक के लिए खम्मा घणी।

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प्राचीन उदयपुर का शासन प्रबंध

उदयपुर का इतिहास व्यापक है| इसके कुछ पहलू अब तक अन-छुए हैं|  इनमें से एक पहलू ऐसा है जिनके बारे में शायद हम सब ने कभी ना कभी ज़रूर सोचा होगा कि प्राचीन समय में उदयपुर व राजा के महल में शासन प्रबंध किस प्रकार रहा होगा| किस प्रकार उदयपुर के कारखाने व न्यायालय कार्य किया करते होंगे| इसका कुछ हाल महामहोपाध्याय कवि राज श्यामल दास द्वारा रचित मेवाड़ के इतिहास की प्रसिद्ध किताब “वीर विनोद” में मिल जाता है| वह हाल कुछ इस प्रकार है-

“कपड़े का भंडार–  कुल राज्य में जितना कपड़ा खर्च होता है वह सब इस कारखाने में से ख़रीद कर जमा होता है| कपड़े के मामूली खर्च के सिवा अगर विशेष खर्च हो तो यह अधिकारी के हुक्म से होता है

कपड़े द्वाराइस कारखाने में खास महाराणा साहिब के धारण करने के वस्त्र रहते हैं|

रोकड़ का भंडार–  यह राज्य का मामूली ख़ज़ाना है| कुल राज्य में रोकड़ का खर्च यहां से होता है|

हुक्म खर्च-  यह कारखाना खास महाराणा साहिब के जेब खर्च का है| प्रतिदिन जो खर्च महाराणा साहिब के ज़बानी हुक्म होता है, उसके हिसाब पर दूसरे दिन खुद महाराणा साहब अपनी मुहर कर देते हैं|

पांडे की ओरी–  (“ओरी” हमारे यहां मेवाड़ी में छोटे कमरे को कहा जाता है|) इस कारखाने में पहले तो बहुत ही प्राचीन चीजें रहती थी लेकिन उसके हिसाब किताब और जमा खर्च में गड़बड़ देखकर महाराणा शंभू सिंह जी ने कुल ख़ज़ाने की मौजूदा चीजों को मुलाहज़ा फरमाने  के बाद जो चीज जिस कारखाने के लायक पाई गई उसको वहां पहुंचा दी और जो चीजें नीलामी वह बख़्शीश लायक थी, उन्हें बख़्शीश दे दी गई| महाराणा साहिब के पहने हुए जेवर और तस्वीरें भी इस कारखाने में रहती है|

सेज की ओरी इस कारखाने में महाराणा साहिब के खास आराम करने के पलंग वगैरह की तैयारी रहती है|

रसोड़ाइस कारखाने में सभी राजसी जन के लिए भोजन तैयार होता है|  पुराने समय में वही पर भोजन किया जाता था| जिसका रिवाज़ इस तरह था की राणा साहब अपने चौकी पर विराजमान होकर  भोजन करते थे| रिवाज़ तो बना लेकिन उसके बाद किसी कारण से उस कारखाने में भोजन करना बंद हो गया| वर्तमान समय में महाराणा अपनी इच्छा अनुसार पासवानों को अपने सम्मुख पंक्तियों पर बिठा कर भोजन करने की आज्ञा देते हैं|

पनेराइस कारखाने में महाराणा साहिब के पीने का जल, खुश्क, और तर मेवा, नाथद्वारा व एकलिंगेश्वरजी वगैरह देवस्थानों का महाप्रसाद और दवाखाना वगैरह रहता है|  

सिलहखाना– इस कारखाने में तलवार, बर्छी और तीर- कमान वगैरह कई प्रकार के शस्त्र रहते है, जिनमे खड्ग भी है। इसके अतिरिक्त, वह तलवार भी है जो बेचरामाता ने शार्दूलगढ़ के राव जशकरन डोडिया को और उन्होंने महाराणा लक्ष्मणसिंह को दी थी। इस तलवार को बाँध कर महाराणा हमीर सिंह ने किला चित्तौडग़ढ़ मुसलमानों से वापिस लिया और इसी तलवार से महाराणा प्रताप अव्वल ने अकबर बादशाह के साथ कई लड़ाइयां लड़ी। उपरोक्त शस्त्रों के अलावा कई प्रकार की ढाले, तोप, कवच वगैरह भी है।

बंदूकों का कारखाना– इस कारखाने में कई प्रकार की तोड़दार बंदूक और जुजावले रहती है, इनके अलावा नए फैशन की कई तरह की टोपीदार व कारतूसी बंदूके और पिस्तौलें वर्तमान महाराणा साहिब (महाराणा सज्जन सिंह जी) ने इकट्ठी करी है। पहले यह कारखाना बाबा चंद्र सिंह के निगरानी में था और अब प्रताप सिंह की संभाल में है।

छुरी कटारी की ओरी– इस कारखाने में कई प्रकार की छुरी व कटारियां रहती है।

देवस्थान की कचहरी–  इस कारखाने में कई छोटे-मोटे देव-स्थानों के जमाखर्ची का प्रबंध है, जिनके पुजारियों के लिए कुछ ब्न्धात नियत कर दिया गया है, जो कुछ उनको इस कचहरी के द्वारा मिलता रहता है। जो कुछ बचत जिस मंदिर की आमदनी से होती है वह उसी मंदिर की समझी जाती है।  केवल निगरानी मात्र राज्य की ओर से मालिकाना तौर पर रहती है। यह कचहरी महाराणा स्वरूपसिंह जी के समय से जारी है।

Shambhuniwas [Shambhu Niwas] Palace, Udaipur
Shambhuniwas [Shambhu Niwas] Palace, Udaipur
शंभूनिवास– महाराणा शम्भुसिंह जी ने शंभूनिवास नामी अंग्रेजी तर्ज़ का एक महल बनवा कर उसकी तैयारी व रौशनी वगैरह का सामान तथा बहुत सी किस्म की प्राचीन चीज़ें इसी महल के दरोगाह रत्नलाल के सुपुर्द कर दी थी, जिससे यह एक बहुत बड़ा कारखाना बन गया।

जनानी ड्योढ़ी –  यह कोई कारखाना नहीं है, बल्कि एक अलग ही सरकार है। सैंकड़ो औरत व मर्द इस ड्योढ़ी से परवरिश पाते है। ड्योढ़ी का कुल काम महता लालचंद व प्यारचंद की निगरानी से होता है और इनके त्तहत में महारानियो के कामदार, मौसल, और दास, दासिया वगैरह सैंकड़ो मनुष्य है|

Elephant fight, Odeypur
Elephant fight, Odeypur

फ़िलख़ानाह– इस कारखाने के निगरान पहले बाबा चन्द्रसिंह हुए, बाद में महाराणा स्वरुपसिंह जी ने इसकी बागडोर ढीकडियां राधाकृष्ण के हाथों सौंप दी जो उनके बाद उनके बेटो ने बखूबी संभाली। इस कारखाने मैं पैंतीस से लेकर पचास हाथी रहते है।    

Stables in the palace, Udaipur
Stables in the palace, Udaipur

घुड़शाला– इस कारखाने में ख़ास महाराणा साहिब की सवारी के और सभ्यजनों के घोड़े तथा बग्घियों के घोड़े-घोड़िया रहती है।

फर्राशखानह– इस कारखाने मे राज्य के कुल डेरे, सरायचे, कनाते, परदे, फर्श वगैरह व महलो का सामान रहता है।

छापाखानह– यह कारखाना बैकुण्ठवासी महाराणा सज्जनसिंह जी ने कायम किया था। इसमें “सज्जन कीर्ति सुधारक” नामक अखबार, अदालतों के इश्तिहार, समन वगैरह कागज़ात छपते है। आपको बता दे की यह किताब (वीर विनोद) भी इसी कारखाने में छपी है।

पुस्तकालय– इस राज्य में दो मुख्य पुस्तकालय है, एक नवीन पुस्तकालय जिसका नाम “श्री सज्जनवाणी विलास” है, जिसका महाराणा सज्जनसिंह साहिब ने निर्माण किया है और दूसरी प्राचीन “सरस्वती भण्डार” के नाम से प्रसिद्ध है। इनके अलावा मदरसे व विक्टोरिया हॉल का पुस्तकालय अलग है।

ऊँटो का कारखाना– रियासत में ऊँटो के दो कारखाने है। एक ढिकड़िया नाथूलाल के त्तहत में है जिसमे नौकर ऊंट और हज़ार-बारह सौ सरकारी ऊंट है। और दूसरा मेरे (कविराज श्यामलदास) त्तहत है जिसमे 40 ऊंट और 10 घोड़ियां है। यह चौकी के उन पचास सरदारों की सवारी के लिए है जो मेरे त्तहत में है। इन सरदारों की नौकरी ख़ास महाराणा साहिब के हुक्म से ली जाती है।

The Victoria Hall, Udaipur
The Victoria Hall, Udaipur

विक्टोरिया हॉल– यह कारखाना महाराणा साहिब ने अपनी क़द्रदानी और महारानी क्वीन विक्टोरिया की यादगार ज्युबिली के निमित्त सज्जन निवास बाग में एक बहुत अच्छा महल बनवा कर कायम किया है। इसमें दो और भाग है- एक संग्रहालय और दूसरा पुस्तकालय।

टकशाल– पहले राज्य में दो टकशाले थी- एक चित्तौड़ में और दूसरी उदयपुर में। फिरहाल उदयपुर की टकशाला ही जारी है जिसमे स्वरूपशाही अशर्फिया और स्वरूपशाही, उदयपुरी और चांदोड़ी रुपया बनता है।

जंगी फ़ौज– यह क़वायदी फ़ौज है। इसकी बुनियाद महाराणा शम्भुसिंह जी के समय पड़ी थी।  लेकिन महाराणा सज्जनसिंह जी ने इसको बढ़ा कर और भी दुरुस्त कर दिया। इसमें क़वायदी पल्टने, रिसालह, तोपखाना, और बैंड-बाजा वगैरह शामिल है।

मुल्की फ़ौज– इस फ़ौज से मुल्क़ी पुलिस का काम लिया जाता है।  

 

महकमे ख़ास के सभी कारखानों का बयान तो हम ऊपर लिख चुके है, अब दूसरा भाग अदालती रहा। उसका वर्णन कुछ इस प्रकार है-

महद्राज सभा– इसे मेवाड़ की “रॉयल कॉउन्सिल” समझाना चाहिए। दो बैठके मिलकर फैसलानामा बनाती है जो महाराणा साहिब के सामने पेश किया जाता है फिर उनकी मंजूरी के अनुसार ही फैसले जारी किये जाते है।

महकमह स्टाम्प व रजिस्ट्री– इसमें स्टाम्प छप कर जारी होते है। मकानात व ज़मीन जायदाद की खरीद फरोख्त के विषय में रजिस्ट्री की कार्रवाई भी यही होती है।”

गौरतलब है की पुरातन शासन प्रबंध आज के उदयपुर का आधार है। शान्ति और एकता हमेशा से ही यहाँ बसी है और आशा है की उदयपुर युहीं दुनिया में अपनी पहचान बनाये रखेगा।

 

उदयपुर के कुछ और प्राचीन और रौचक तस्वीरें देखने के लिए यहाँ क्लिक करें-

76 Superb Classic Photos of Old Udaipur

 

 

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Maharanas of Udaipur

“Many Indian capitals have greater claims of size or grandeur, many are wealthier by far, But none can boast a proud heritage. His Highness Maharana of Udaipur, direct descendant of the Sun God, a natural leader by birth and tradition of all the Indian princes of the Hindu faith…….and no city could be more lovely”   
                                                                      -The Secrets of India
                                 ( Gaumont-British Picture Corporation Limited, 1934)

Maharanas of Udaipur were indeed magnificent. Hereby we bring all about the Maharanas of Udaipur.

Eternal Mewar

                    Maharana Bhim Singh of Mewar (r. 1778-1828)


Maharana Bhim Singh Ji, Son of Maharana Ari Singh II, was the First Maharana of Udaipur and Twenty-Fifth Maharana of Mewar. He became King at a minor age of 10 years and during his minor years of age and even adulthood, he ruled under the inspection of his mother Rajmata Sardar Kunwar Jhali Ji. He inherited an unstable kingdom and it was the same during his reign. Marathas took off from the region, taking along all the riches and farmers too abandoned the region. Apparently, Maharana too was very broke to even get his sons married, which arguably were 32 in number. To deal with the financial mess, Maharana signed a treaty with Britishers which gave them full power over the kingdom. According to the treaty, a British agent will be appointed in the kingdom to see all the affairs with no interference of the King. It was a fortunate stroke of serendipity when Col. Tod was appointed as the British agent and during his time in Udaipur, kingdom experienced good returns on revenue. He believed that Maharana was rather slothful and least interested in ruling the kingdom effectively. Maharana died at an age of sixty in 1828.

     

Eternal Mewar

                    Maharana Jawan Singh of Mewar (r. 1828- 1838)


Maharana Jawan Singh Ji, son of Maharana Bhim Singh Ji, inherited a bankrupted kingdom and ruled for a very short time span of 10 years. The treaty signed by Maharana Bhim Singh Ji turned out to be insignificant as it did not serve the purpose. Maharana Jawan Singh Ji too tried hard to lift kingdom financially but failed and kingdom did not prosper significantly. At a young age of 17, Maharana died with no designated Heir.


                    Maharana Sardar Singh of Mewar (r. 1838-1842)



Due to the failure of the preceding king to choose an heir, Maharana Sardar Singh Ji, the successor of Maharana Sangram Singh Ji II, was chosen as the King. He then went on to rule Udaipur but he died only after 3 years of sitting on the throne and left behind obsolescent kingdom.

Eternal Mewar

                    Maharana Swaroop Singh of Mewar (r. 1842-1861)



Maharana Swaroop Singh Ji, younger brother of Maharana Sardar Singh Ji, was adopted and appointed the Heir as Maharana had no son. Swaroop Singh Ji inherited an unstable kingdom but brought about some reforms to get the state back on track. He introduced a new coinage, outlawed “Sati” tradition and brought some administrative reforms. He also gained the trust of Britishers by terminating rebellion in Nimbahera and Neemuch and providing the roof to British refugees. Kingdom started uplifting. He died soon after adopting Shambhu Singh as his appointed heir.

 

Eternal Mewar

                    Maharana Shambhu Singh of Mewar (r. 1861- 1874)



Maharana Shambhu Singh Ji, the successor of Maharana Sangram Singh Ji II, became a minor king of the comparatively progressive kingdom and when he attained full power, introduced various policies and reforms and the state blossomed. He got Military reassembled under his rule, formalized various policies to arrange administrative resources, institutionalized offices for temples and holy places and the first-ever school for girls was established in the state. “Sati Pratha” was on the path of termination as a legal practice and fines were introduced for practitioners. Infrastructure saw a surge this time as roads and railway tracks were constructed. He died at an early age of 27 years, leaving behind no heir.


Eternal Mewar

                    Maharana Sajjan Singh of Mewar (r. 1874- 1884)



Maharana Sajjan Singh Ji, the first cousin of Maharana Shambhu Singh Ji, inherited the kingdom after Shambhu Singh Ji’s death. Under his rule, true prosperity set its foot in the kingdom. Development of railway tracks, roads, and water supply took place, Schemes for afforestation, farming techniques, and irrigation were formalised, di-siltation of Lake Pichola was done post- floods in the region, the magnificent Sajjangarh Palace aka “monsoon palace” was built and Udaipur became the second city in India to have the Municipal Corporation after Bombay. Medical and educational institutions were developed, corruption was checked and guilty were executed. On the contrary, Maharana had a profound fondness for Art and Culture and he used to compose Dohas and Sawaiyas in Thumri, Folk, and Ghazal style. The book “Haqiqat Bahida” was the version of his daily journal. He had a short yet a remarkable reign period of a mere 10 years and these 10 years are written in Gold in the history of Udaipur.


Eternal Mewar

                    Maharana Fateh Singh of Mewar (r. 1884-1930)



Maharana Fateh Singh Ji, the descendant of the fourth son of Maharana Sangram Singh Ji II, was adopted by Maharana Sajjan Singh Ji as his appointed heir. He shaped and brought to life all his vision during his reign. He worked towards the path of the betterment of kingdom by modernizing and improving roads, railways, settlements, medical and educational facilities. He built the Majestic Shiv Niwas Palace, which is now a luxury hotel. Fateh Sagar Lake too came into existence after the extension of Dewali Lake when Connaught dam was built. He was a true Suryavanshi King, who did not believe in the graciousness of the “the Queen”. With an extraordinary life as “the Maharana”, he died at the age of 80 years.


Eternal Mewar

                    Maharana Bhopal Singh of Mewar (r. 1930-1955)



Maharana Bhopal Singh Ji, son of Maharana Fateh Singh Ji, became king when India was struggling for independence. He wholeheartedly supported the political and social modifications that were taking place in the country. He institutionalized schools and colleges in the kingdom, especially for girls and also took care of the natural beauty of Udaipur. He constructed Bhopal Singh Dam and several projects for afforestation in the Aravalli region. After independence, he merged the kingdom with the Rajasthan Union and was appointed as “Maharaj Pramukh” of it by Indian Government. Even though being physically inefficient, as he was paralyzed from the waist down, he was no less than any ruler in terms of greatness and courage. He adopted Bhagwat Singh as his appointed heir and died soon after.


Eternal Mewar Blog

                    Maharana Bhagwat Singh of Mewar (r. 1955-1984)



Maharana Bhagwat Singh Ji, the fourth son of Maharana Sangram Singh II, steered the kingdom according to the changing times as independent India was witnessing a number of transformations then. In 1970, Royal titles and grants were being abolished and Maharana became Mr. Bhagwat Singh Mewar. A true visionary who believed in the welfare, he decided to sell the royal forts and palaces in order to maintain them the way they were. Jag Niwas was converted into Lake Palace Hotel and other estates on the shore of Lake Pichola like Fateh Prakash and Jag Mandir too were sold off. He died in 1984 and thus was the last Maharana of Udaipur.


With the intellect and initial efforts of our Kings, Udaipur is now amongst the most beautiful cities in the world where people live in harmony with each other. Culturally, traditionally, naturally and in every aspect, a city could be, Udaipur is perfect!

 

Sources:

http://www.eternalmewarblog.com/rulers-of-mewar/

https://en.wikipedia.org/wiki/Udaipur_State#Maharanas

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History and Culture

Udaipur- Then, Now and Further

On this day, 18 April, The Foundation Day of Udaipur- let us know about our beautiful city of lakes. Udaipur- Then, Now and Further!

Then-

We all know that Maharana Udai Singh II founded Udaipur in 1553 but do you know how? In the 16th century, Maharana Udai Singh II wanted to move his capital from Chittaurgarh due to ongoing attacks of Mughal. One day while hunting in the foothills of the Aravali Range, Udai Singh Ji came upon a monk who blessed him to build a palace at a spot which is now Pichola. He rejected the idea of building it at Ayad as it was the flood-prone area at that time. Further, to protect Udaipur from the enemies he built a six-kilometer-long wall with main gates known as Surajpole, Chandpole, Udiapole, Hathipole, Ambapole, Brahmpole and so on. The area within the wall is still known as the old city. Udaipur remained safe afterward as it was a mountainous region and it was difficult for the Mughals to carry their heavy weapons and horses up there.

Udaipur- Then, Now and Further
Source: Wikipedia

Our ancestors put in great mind in the making of Udaipur. The majestic beauty and safety of the city were all in their brains back then. There’s a reason why there are so many man-made lakes in Udaipur. In ancient times, people of Udaipur had no source of water apart from rainwater. To solve this problem man-made lakes were formed which made a lake system with seven lakes. All these lakes were interconnected to each other so that in case of heavy rainfall, the water can travel further and doesn’t drown the city. The lake system comprises of Lakes Pichola, Rang Sagar, Swaroop Sagar, Fateh Sagar, Badi, Madar and Udai Sagar. All the lakes of Udaipur form a chain in the saucer-shaped Udaipur valley.

Timeline of Udaipur

1553 – Founded by Udai Singh II and Ruled by Sisodia clan of Rajput for next 265 years.

1678 – Fateh Sagar Lake built by Maharana Jai Singh which was improvised later by Maharana Fateh Singh.

1818 – Became the British princely states under British rule.

1884 – Ruled by 73rd Rana when Udaipur saw major development with railway, college, schools, hospitals, and dispensaries all established.

1947 – After independence, the Maharaja of Udaipur granted the place to the government of India. Mewar was merged into the state of Rajasthan.

Udaipur- Then, Now and Further
Photographer: Lala Deen Dayal
Udaipur- Then, Now and Further
Source: Udaipurbeats.com

Now –

After Independence, Udaipur is constantly developing and now has become the dream destination of every tourist in the world. Udaipur, also known as ‘The City of Lakes’ or ‘Kashmir of Rajasthan’ is the romance fantasy for all the couples out there. The city has also been excelling in its massive historic forts and palaces, museums, galleries, natural locations and gardens, architectural temples, as well as traditional fairs, festivals, and structures.

Udaipur- Then, Now and Further
Photographer: Lala Deen Dayal
Udaipur- Then, Now and Further
Source: Udaipurbeats.com

 

And further 

After the smart city mission launched by Prime Minister Narendra Modi on 25 June 2015, there has been latest changes and developments that all the Udaipurites can see:

  • New public parking constructed at various places like townhall, Nagar Nigam parking near Gulab Bagh, etc.
  • Many tourist spots have been renovated lately. If you have noticed Fatehsagar has been renovated completely in last few years.
  • Place similar to Fatehsagar is been constructed around Daiji footbridge near gangaur ghat where you can enjoy your evenings by simply walking and pleasuring your eyes with the amazing view.
  • Udaipur is also developing itself with the comforting hospitality that it provides. The city is filled with all kind of hotels and places where a tourist can find peace and enjoy his journey.

Now that you know all about Udaipur, go and please your body and soul in the charm of the city.

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The Women Together Award (WTA) honors Maharana Arvind Singh Mewar

Celebrities don’t need any introduction and this honourable person being discussed here is also fully defined in himself, and here I am talking about Shriji Arvind Singh Mewar of Udaipur who is a recognized and a respectable public figure. Recently, Maharana Mewar Charitable Foundation (MMCF) of whose he is the Chairman and Managing Trustee has been honored with the 8th Women together Award as the Best Organisation.

Shriji Arvind Singh Mewar | UdaipurBlog

A brief introduction about the MMCF would reveal that it is a Public Charitable Trust which was basically settled for the purpose of the sustenance of the duties and responsibilities in democratic India. This is the living heritage of the House Of Mewar, which encompasses a wide range of activities that include environmental protection through water resource management, extensive medical and health care aid, providing pension covers to ex-employees, promoting self-reliance amongst women  and  encourage  financial  support  to  educational  and  cultural  endeavors. MMCF, an epitome of India’s rich Vedic tradition, through its works and service to humanity has now become an inspiration for the generations to come.

So, in the light of so many contributions by MMCF, it was awarded with the VIII Women Together Institution Award in a distinguished ceremony where the prestigious award was accepted by Maharana Arvind Singh Mewar and addressed the distinguished gathering with his golden words which are quoted as follows:

“Greetings from Udaipur !!!

It is a privilege to be present here in the middle of such a distinguished gathering and to receive the VIII Women Together Institution Award for 2012 presented to The Maharana of Mewar Charitable Foundation,Udaipur. We wish to thank the Office Bearers of the WT Award Committee, the Jury and all those who were instrumental in selecting the MMCF for this singular selection from a land so far away from the HQ. On this occasion we wish to express our deep gratitude to the people of Udaipur and Joint Custodians of MMCF  with  whom  we  share  the  pleasure  and  the  commitment  of  making  Udaipur  an  improved destination through our engagement in academics, eco-management, philanthropy, living heritage and several other areas of socio-economic relevance. Appreciation from prestigious organisations is extremely encouraging. It provides us with an increased impetus to work harder and take the immense challenges that face us head on. Your validation will also provide a greater zeal in all of us who are associated with the MMCF. I would like to use this opportunity to request all of you esteemed guests to visit Udaipur and advise us how we can further improve our beloved city Udaipur. I thank Women Together Association once again for having conferred this award on Maharana of Mewar Charitable Foundation.”

Shriji Arvind Singh Mewar | UdaipurBlog
His highness delivering his speech

The ceremony was organized at the United Nations General Assembly on 5th June where he dedicated this award not only to the workers and officials of the MMCF but also to the residents of Udaipur. Also, the WTA spokesperson said that Mewar Foundation has held on to the tradition of the Mewar Family towards it emphasis on human values and future preservation for which the credit goes to the multidimensional thinking of Maharana Arvind Singh Mewar.

WTA is a non-government organization which honors people and social organizations from various fields for the renowned and appreciable work done by them and MMCF is being honored by it is a matter of immense pleasure and proud for every Udaipurite. Our entire team extends heartily congratulations for this achievement.

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Inputs Courtesy: The City Palace, Udaipur

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Maharana Pratap Jayanti

maharana pratap UdaipurBlog

We Belong from the Land Of Warriors – ‘Udaipur’ – The Capital of Mewar and today we celebrate the Glory of Freedom, Independence in the form of Maharana Pratap Jayanti. Pratap (The Son of Maharana Udai Singh II) the Legendary Hero of Mewar who fought for Freedom till his Last Breath. Due to his Effort Mewar was the Only Independent Land free from Invaders all around the World. It is a well known fact that Mewar was the Only free state from the Great Mughal Badhshah Akhbar and Britishers.

udaipur london dosti - UdaipurBlog
This 1 Rupee Coin Made Up Of Silver is a Symbol of Friendship between Bristishers and Mewar State

Maharana Pratap Jayanti is Celebrated every year on Shukla Thritiya of the Ashad month (May or June). This Year (2010)  it is on 15th June.

About Maharana Pratap:

Maharana Pratap (May 9, 1540 – January 29, 1597) was 16th century King who ruled Mewar, a state in north-western India. He was born on 9th May 1540 in Kumbhalgarh, Rajasthan. His father was Maharana Udai Singh II and mother was Rani Jeevant Kanwa. He was the eldest among 25 brothers and 20 sisters and was the 54th ruler of Mewar. He belonged to the Sisodiya Rajput clan.

From childhood Rana Pratap had the passion that a Kshatriya king needs to possess. In 1568, when Maharana was just 27 years old, the Mughal emperor Akbar conquered Chittor. Maharana Udai Singh, his father decided to leave Chittor and moved to Gogunda. Seeing this as opportunity, his half brother Jagmal took away the throne. When Jagmal was unable to manage affairs he joined the army of Akbar with an idea to take revenge with Maharana Pratap.

Maharana faced many struggles in his career. He kept on fighting with Akbar all his life. Akbar tried several ways to win over Maharana Pratap but he was always a failure. Maharana could not forget when Akbar killed 30,000 unarmed residents of Chittor only because they refused to convert to Islam. This made Maharana revolt against Akbar and he followed strict codes of Kshatriyas to fight with Akbar.

Battle of Haldighati

Battle Of HaldiGhati - UdaipurBlog

On June 21, 1576 (June 18 by other calculations), the two armies met at Haldighati, near the town of Gogunda in present-day Rajasthan. While accounts vary as to the exact strength of the two armies, all sources concur that the Mughal forces greatly outnumbered Pratap’s men (1:4). The battle of Haldighati, a historic event in the annals of Rajputana, lasted only four hours. In this short period, Pratap’s men essayed many brave exploits on the field. Folklore has it that Pratap personally attacked Man Singh: his horse Chetak placed its front feet on the trunk of Man Singh’s elephant and Pratap threw his lance; Man Singh ducked, and the mahout was killed.

However, the numerical superiority of the Mughal army and their artillery began to tell. Seeing that the battle was lost, Pratap’s generals prevailed upon him to flee the field ( so as to be able to fight another day. Myths indicate that to facilitate Pratap’s escape, one of his lieutenants, a member of the Jhala clan, donned Pratap’s distinctive garments and took his place in the battlefield. He was soon killed. Meanwhile, riding his trusty steed Chetak, Pratap made good his escape to the hills.

But Chetak was critically wounded on his left thigh by a Mardana (Elephant Trunk Sword) while Pratap had attempted to nail down Man Singh. Chetak was bleeding heavily and he collapsed after jumping over a small brook few kilometres away from the battle field. When Pratap’s general donned Pratap’s clothing and armour, it went unnoticed, thanks to the chaos of the war, but for two Turk knights from the Mughal army. They could not communicate it with others in their group, due to the linguistic barrier (the appropriate language would have been Persian, Marwari or Arabi, given the composition of the Mughal army). They immediately followed Pratap without wasting time. The moment they started chasing him, Pratap’s younger brother Shaktisingh, who was fighting from the Mughal side, (he had some disputes with Pratap at the time of Pratap’s coronation; hence he had defected and gone over to Akbar’s court) realized that his own brother was under threat. Pratap’s general’s sacrifice had already been discovered by him. He could not help but react against a threat to his own brother. He followed the Turks, engaged them in single combat and killed them. In the meanwhile, Chetak collapsed and Pratap saw his brother Shaktisingh killing the two Mughal riders. Saddened by the loss of his beloved general and horse, he embraced his brother and broke into tears. Shaktisingh also cried and asked for his brother’s pardon, for having fought as his enemy. Pratap pardoned him (later on he was given a huge estate near Chittor). Shaktisingh then offered him his own horse and requested him to get to a safe place. This incident is famous in Rajasthani folklore, a song “O Neele Ghode re Aswar” (O Rider of the Blue Horse) mentions it.

A mausoleum to Chetak is at the site of the steed’s death.

The impact of the battle on the Mughal army was also significant. In terms of numbers the Mughal army suffered heavier losses. This was also because of the intensive arrow showers by the Bhil tribes of the surrounding mountains who had sided with Pratap. To honour their contribution, a Bhil warrior was placed next to Pratap in the Royal Coat of Arms of Mewar.

The battle of Haldighat is considered to be the first Major breakthrough of Rajputs against the Mughals since the Second Battle of Khanwa in 1527, which was fought between Rana Sanga grandfather of Maharana Pratap, and the Mughal Babur grandfather of Akbar. It is regarded with a degree of significance by many Rajput families.

Moti Magri (Udaipur):

Moti Magri Smarak  - UdaipurBlogAn impressive bronze statue of Maharana Pratap and his favorite and loyal horse, who fiercely protected his master and stood by him till his last breath, stands at the top of Moti Magri, overlooking Fateh Sagar. Local habitants climb the hill to pay homage to Maharana Pratap and his faithful horse Chetak, who were killed in the battle of Haldighati. Also there are the ruins of one of the first modest palaces of Udaipur and also a charming Japanese rock garden. The Memorial has the first Light & Sound program in Rajasthan, that displays the glorious 1400 years of Mewar’s history. All these are highly decorated with lights during the Maharana Pratap Festival. People from across the world come to visit the place.

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Maharana Pratap Khel Gaon

For Encouraging Sports in the city and even for encouraging International Sports in this ‘City of Lakes’.A step has been put forward by establishing ‘Khel Gaon (village)’ or Maharana pratap khel Gaon in Chitrakoot Nagar.

It would be committed to 12 sports presently like Basketball, Volleyball, Tennis, Kho-Kho, Kabaddi, Handball, Archery, Rifle shooting, Judo – Karate, Boxing, Swimming, Squash.

The mam stadium will have the work done of about 7.53 crores. At present it would have a capacity of including  15000 visitors.

It is estimated to complete till this winter- December 2009.

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Udaipur Speaks

Udaipur History

Udaipur’s history began with the construction of the Nouchouki palace on the banks of a pond dug by a gypsy in the 15th century. Udai Singh extended this pond and dug a massive manmade lake and christened it Pichola after a tiny village Picholi, located close by.

A suryavanshi and a descendant of the Sisodia Rajputs who are the oldest ruling family in the world with a traceable history of over 26 generations, Maharana Udai Singh created a dream city that is an oasis with lakes, wildlife, flora and fauna in the midst of desert Rajasthan.

According to common legend the city of lakes or Udaipur was established by Maharana Udai Singhji after he was advised by a hermit to do so. It is believed that Udai Singhji was on one of his hunting tours when he had an encounter with a meditating hermit on the banks of the Lake Pichola who inspired him to establish the city of Udaipur in the midst of a valley surrounded by the Aravali hills and ornamented with three massive lakes. The royal Sisodia’s reigned supreme in Udaipur that became the capital city of the state of Mewar after the fall of Chittorgarh. Sisodia’s are believed to be the oldest ruling family in Rajasthan and can trace their lineage for more than 67 generations.

Udaipur is quite like a fairy tale destination with its pure marble forts and palaces, lakes, pavilions and gardens. A favorite haunt with newly weds, Udaipur is soaked in a dreamy romantic mist that is full of sweet promises.

The land of the brave Rana Pratap and Rana Sanga, Udaipur has seen many a battle that was fought for the valor and pride of the proud Sisodia Rajputs. Several women from the royal house of Mewar were married of to Mughal rulers for promoting political relations.


After the death of Udai Singh, his valiant son Maharana Pratap took over the royal throne and was engaged in constant power skirmishes with the Mughals with an aim to recapture the erstwhile capital of Mewar, Chittor.

A landmark in the history of Udaipur, the fierce battle of Haldighati was fought in between Akbar and Maharana Pratap. Till date you can see a delightful shrine that was constructed in the memory of Chetak, Maharana Pratap’s beloved horse, who in spite of suffering fatal injuries had brought its master to safety from the battlefield.