सुबह के 5:00 बजे होंगे। शहर के उपनगरीय क्षेत्रों के घरों में बजते अलार्म, सुबह की गहरी-मीठी नींद में सोते लोगों के हाथों से बंद कर दिए जा रहे थे। कुछ इक्के-दुक्कों को छोड़ दिया जाए तो हिरन-मगरी अभी भी सो ही रहा था। लेकिन यहाँ से 5 किलोमीटर दूर शहर के बीचों-बीच क़रीब 100 एकड़ में फैला लगभग 137 वर्ष बूढ़ा बाग़ अपने अन्दर लगे बड़े-बड़े पेड़ों में से एक अलग ही ज़िन्दगी को झाँक रहा था, जो उदयपुर शहर के बाहर बसी जिंदगियों से बहुत अलग थी। मैं वहाँ 15 मिनिट में पहुँच गया। घड़ी में 5:15 बज रहे होंगे लेकिन मैं तब भी लेट था।

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वहाँ आए एक-आध लोगों से बात करने पर पता चला कि उनकी सुबह तो कब की हो चुकी है। कोई अकेला गुलाब बाग़ के चक्कर लगा रहा था, कोई किसी अपने का हाथ पकड़ क़दमों की ताल को बांधे हुए था, तो कोई ग्रुप में बैठे अपने स्कूल/कॉलेज के दिनों को याद कर गुलाब बाग़ में अपने बचपन को तलाश रहा था।

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अगर आपको असली उदयपुर देखना है तो यहाँ आइए। मुझे पूरी उम्मीद है यहाँ दिखने वाले दृश्यों को आप शायद ही कभी भुला पाएंगे। इन बूढ़े पेड़ों और लुप्त होते गुलाबों, जिनकी वजह से इसका नाम गुलाब बाग़ पड़ा था, उदयपुर की पहचान बचाने की पूरी कोशिश कर रहा है। आम और जामुनों के पेड़ों के नीचें लगी बेंचों पर बुज़ुर्ग अपनी महफ़िल जमाते हुए नज़र आ जाते हैं, इन्टरनेट की दुनिया से बिलकुल एक अलग दुनिया की बातें करते। वह दुनिया जिसे हम यंग्सटर्स कभी की भुला चुकें है।

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हालाँकि कुछ नयी जिंदगियां यहाँ नज़र ज़रूर आती हैं लेकिन वो भी दौड़ती हुई, बस। हम सभी दौड़ रहे हैं, न जाने किस चीज़ की तलाश में? अगर कोई रुकता भी तो बस हाफ़ने भर के लिए और एक सांस भर फिर से दौड़ पड़ता है।
गुलाब बाग़ वहीँ रहे, ऐसी उम्मीद करता हूँ। वहाँ चलती महफ़िलें कभी लुप्त ना हो, जैसे गुलाब बाग़ से गुलाब लुप्त हो चुकें है। अब वो सिर्फ् एक बाग़ बनता जा रहा है।
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