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Udaipur Speaks

पिपलिया जी – वह गाँव जहाँ कभी फूल खिला करते थे, अब चारो-ओर काँच के टुकड़े मिला करते हैं।

एक इंसान अपनी ज़रूरतें/इच्छाएं पूरी करने के लिए जब दायरा बढ़ाता है, तब-तब इस धरती पर कांड होता है. कभी बहुत ही साफ़-सुथरा जन्नत सा एहसास दिलाने वाला ‘पिपलिया जी’ गाँव आज वहाँ तरह-तरह की ब्रांडेड पीकर फैंकी गयी बोतलों के काँच से अटा पड़ा है. हालत ये है कि वहाँ बैठो तो मुमकिन है वहाँ फैला काँच उसके वहाँ होने का सबूत ज़रूर देगा. चुभकर.

peepliya ji, udaipur
Photo By: Kunal Nagori

यह सबकुछ शुरू होता है शहर से ही. खुद ही के बनाए शहरी जंगल से ऊब जाने की स्थिति में लोग आसपास की जगहों में मदर नेचर/ प्रकृति की गोद, जो भी कहना चाहो, ढूढ़ने निकल पड़ते है. इसमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन हम इंसानों की फ़ितरत है कि जिसे सबसे ज़्यादा चाहते है उसे ही सबसे ज़्यादा जाने-अनजाने में नुकसान पहुँचा देते है.

Peepliya ji
Photo By: Kunal Nagori

किसी भी नए पर्यटन स्थल/टूरिस्ट पॉइंट के उभरने से स्थानीय लोगों को फ़ायदा पहुँचता है, बेशक. लेकिन उससे होने वाले नुकसान भी उन्हें ही उठाने पड़ते हैं. क्योंकि हम तो ‘मनोरंजन कर’, ‘फील कर’, ‘सेल्फी लेकर’, ‘खा-पी कर’ निकल लेते हैं, पर इन सब की निशानी छोड़ जाते हैं.

Peepliya ji
Photo By: Kunal Nagori

मानाकि ये उमंगो भरी उम्र है पर इसका मतलब ये तो क़तई नहीं निकलता की इस उम्र को बेफिक्री और नाशुक्री के साथ जिया जाए. हमें इतना ख़याल तो रखना ही चाहिए कि कम से कम वहाँ रहने वाले लोगों को हमारी वजह से कोई परेशानी न उठानी पड़े.

Peepliya ji
Photo By: kunal Nagori

ऐसा नहीं है कि उन्हें हमारी मौजूदगी से कोई परेशानी है. वो बाक़ायदा खुश है की उन्हें अब कमाने के लिए शहर/मंडी नहीं आना पड़ता. यहीं बैठे-बैठे दिहाड़ी का जुगाड़ हो जाता है.

peepliya ji
Photo By: Krishna Mundra

वो मासूम है, हमारी तरह चालाक नहीं है (आप मानो या न मानो लेकिन सच है), वो सन् 2025-50 की नहीं सोचते. ये गाँव वाले आज में जीते हैं. और हम इन्हें भविष्य के धुंधले, बादलों के समान सपने दिखा रहे हैं. हम इन गाँवों को शहर बना रहे हैं और गाँव-वालों को शहरी.

By Shubham Ameta

Theatre Practitioner
Documentary Writer
Blogger

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